रिपोर्ट
अभिनय आकाश
राजनीति में रोने की रवायत, इससे पहले भी देखा गया है आंखों का समुंदर होना
नेताओं के रोने का असर तीन कारणों पर निर्भर करता है। पहला यह कि वह किस संदर्भ में है दूसरा उसकी टाइमिंग और तीसरा वह कि ये किसकी आंख से निकला है। पिछले चुनावों में टिकट कटने पर कई नेता पत्रकार वार्ता के दौरान रोना शुरू कर देते है। लेकिन राकेश टिकैत के आंसुओं ने माहौल बदला और बाजी पलटी।
26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा के बाद लोगों में काफी रोष दिखाई पड़ा। किसान आंदोलन का भी माहौल बदलता दिखा। दो दिन बाद 28 जनवरी को पुलिस ने पूरी तरह दबाव बनाना शुरू कर दिया। किसानों नेताओं को पुलिस से नोटिस मिले और पुलिस का फ्लैग मार्च भी होने लगा। गाजीपुर बाॅर्डर पर फिजां बदलने लगी। तंबू सिमटने लगे। रही सही कसर गाजियाबाद प्रसाशन के गाजीपुर आंदोलन को अवैद्य घोषित करने ने निकाल दी। कयास लगाए जाने लगे कि राकेश टिकैत गिरफ्तारी देंगे और मंच पर जाकर इसकी घोषणा कर देंगे। लेकिन मंच पर राकेश टिकैत का एक अलग ही रूप देखने को मिला। भावुक और रूआंसे टिकैत ने पानी नहीं पीने और आत्महत्या तक कर लेने की बात कर डाली। टिकैत के आंसुओं ने किसान आंदलोन को फिर से जीवंत करने का काम किया। वैते तो नेताओं के सार्वजनिक रूप से रूआंसे होने की ये कोई पहली घटना नहीं है। उनसे पहले बहुत से नेता सार्वजनिक मंच पर रोते हुए नजर आए हैं। लेकिन सब के मायने और असर एक जैसे नहीं रहे। नेताओं के रोने का असर तीन कारणों पर निर्भर करता है। पहला यह कि वह किस संदर्भ में है दूसरा उसकी टाइमिंग और तीसरा वह कि ये किसकी आंख से निकला है। ऐसे में एक बड़ा सवाल कि क्या सार्वजनिक तौर पर बहाए गए आंसू किसी नेता की कमजोरी को दर्शाते हैं या उनके मानवीय पहलू को उजागर कर जाते हैं?
साल 2014 में बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद संसदीय बोर्ड की बैठक में लाल कृष्ण आडवाणी ने नरेंद्र मोदी के नाम का प्रस्ताव रखते हुए कहा था कि यह सब नरेंद्र भाई की कृपा है। नरेंद्र मोदी ने भावुक होते हुए आडवाणी ने आग्रह किया कि वे कृपा शब्द का प्रयोग न करें। एक बेटा अपनी मां पर कृपा नहीं करता है। बेटा समर्पण के साथ काम करता है। मैं भाजपा को अपनी मां मानता हूं। यह पहला अवसर था जब पूरे देश ने नरेंद्र मोदी को भावुक अंदाज में देखा था। इसके बाद अटल जी का जिक्र आते ही पीएम मोदी का गला भर आया था।
रोते हुए रूकसत हुए केसरी
1998 में सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि खुद उनके द्वारा बुलाई गई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक को उन्हें छोड़कर जाना पड़ा था। मार्च 1998 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से सीताराम केसरी की विदाई हुई और उनकी जगह सोनिया गांधी ने संभाली। 24 अकबर रोड के कांग्रेस मुख्यालय से वे रोते हुए बाहर निकले थे जिसकी तस्वीर कई अखबारों में छपी थी। कहा जाता है कि केसरी के साथ कांग्रेस मुख्यालय में काफी बदसलूकी हुई थी और उन्हें जबरदस्ती बाहर निकाला गया था।
15वीं लोकसभा के आखरी दिन बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी बेहद भावुक हो गए थे। सुषमा स्वराज ने कहा कि आडवाणी के रूप में उन्हें एक संरक्षक मिला और उन्होंने बहुत कुछ सीखा। जिसके बाद आडवाणी अपने जज्बात को काबू नहीं रख सकें और उनकी आंखे छलक आईं। उन्हें अपने आंसू पोंछते हुए देखा गया।
योगी का फूटा दर्द
साल 2006 में गोरखपुर से बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ ने अपनी बात रखने के लिए लोकसभा अध्यक्ष से विशेष अनुमति ली। उस वक्त पूर्वांचल के कई कस्बों में सांप्रदायिक हिंसा फैली थी। आदित्यनाथ जब अपनी बात रखने के लिए खड़े हुए तो फूट-फूट कर रोने लगे। कुछ देर तक वे कुछ बोल ही नहीं पाए और जब बोले तो कहा कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार उनके खिलाफ षड्यंत्र कर रही है और उन्हें जान का खतरा है।
कर्नाटक के पूर्व सीएम एचडी कुमारस्वामी बीते कुछ समय में कई बार रोते हुए सार्वजनिक तौर पर नजर आए। कर्नाटक के मंडया में बात करते हुए उन्होंने कहा कि क्या गलती थी मेरी की मंडया के लोगों ने हरा दिया। इससे पहले भी चुनावी रैली के दौरान कुमारस्वामी भावुक नजर आए थे। इसके अलावा एक और भाषण के दौरान भी कुमारस्वामी रो पड़े थे। उन्होंने कहा था कि मैं भावुक इंसान हूं, लेकिन असहाय नहीं हूं।
पिछले कई चुनावों में टिकट कटने पर कई नेता पत्रकार वार्ता के दौरान रोना शुरू कर देते है। लेकिन राकेश टिकैत के आंसुओं ने माहौल बदला और बाजी पलटी। जिसके बाद राजनीति में आंसुओं को तुरूप का पत्ता के तौर पर इस्तेमाल करने की रवायत सी चल पडे़गी। वैसे मानवीय भावनाओं को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करना या न करना किसी राजनेता का निजी फैसला हो सकता है। लेकिन इसके वोट बटोरने का तरीका मात्र मान लेने पर इस पर सवाल भी उठेंगे।