राजा बलि का घमंड तोड़ने भगवान विष्णु को लेना पड़ा वामन अवतार

 

रिपोर्ट
विनोद कुमार दूबे
संतकबीरनगर संदेश महल समाचार

महुली कस्बा में चल रही संगीतमयी श्रीमद् भागवत कथा में सोमवार को श्रीधाम वृन्दावन से पधारे कथा वाचक पंडित सुन्दर कृष्ण शास्त्री जी महाराज ने बताया कि प्रभू अपने भक्त के मन में उपजे घमंड का नाश करते हैं। जिससे भक्त अपने शक्ति का दुरूपयोग न कर सके। घमंड मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। कथा में भगवान विष्णु के वामन अवतार, समुन्द्र मंथन प्रसंग की रोचक कथा सुनाई। कथा वाचक ने कहा कि, दैत्यों का राजा बलि बड़ा पराक्रमी राजा था। सतयुग में दैत्यराज प्रह्ललाद के पौत्र बलि ने स्वर्ग में अधिकार कर लिया था। सभी देवता इस विपत्ति से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओ से कहा की में स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से जन्म लेकर तुम्हे स्वर्ग का राज्य दिलाऊंगा। कुछ समय पश्चात भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को भगवान विष्णु ने वामन अवतार के रूप में जन्म लिया। इधर दैत्यराज बलि ने अपने गुरु शुक्रचार्य और मुनियो के साथ दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञ का आयोजन किया। उसी समय वामन रूप में विराजमान भगवान विष्णु राजा बलि के यहां पहुंचे। वे अपनी मुस्कान से सब लोगो के मन मोह लेते थे। उस समय राजा बलि यज्ञ कर रहे थे। बलि से वामन भगवान ने कहा राजा मुझे दान दीजिए। बलि ने कहा मांग लीजिए। वामन ने कहा मुझे तीन पग धरती चाहिए। दैत्यगुरु भगवान की महिमा जान गए। उन्होंने बलि को दान का संकल्प लेने से मना कर दिया। लेकिन बलि ने कहा गुरुजी ये आप क्या बात कर रहे हैं। यदि ये भगवान हैं तो भी मैं इन्हें खाली हाथ नहीं जाने दे सकता। भगवान वामन ने अपने विराट स्वरूप से एक पग में बलि का राज्य नाप लिया, एक पैर से स्वर्ग का राज नाप लिया। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा। तब भगवान ने कहा तीसरा पग कहां रखूं। बलि ने कहा मेरे मस्तक पर रख दीजिए। जैसे ही भगवान ने उसके ऊपर पग धरा राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने बलि को पाताल का राजा बनाते हुए वर मांगने को कहा तो वलि ने कहा कि प्रभू मैं जिस रास्ते से निकलूं तो आप ही मुझे दिखाई दे। भक्त के दिये वचन मान रखते हुए प्रभू चौकीदार की भूमिका निभाई। समुन्द्र मंथन की कथा सुनाते हुए कथा ब्यास ने कहा कि, धरती का निर्माण करने के लिए समुद्र मंथन का होना जरूरी था। क्योकि उस वक्त धरती का छोटा सा हिस्सा जल से बाहर निकला हुआ था बाकि हर जगह पानी ही था, इतने बड़े कार्य के लिए केवल देवताओं की शक्ति काफी नहीं थी। अपितु देवताओं के साथ राक्षसों की शक्ति का भी प्रयोग होना था। राक्षस इस कार्य को करने के लिए राजी हो जाते हैं। क्योंकि समुद्र मंथन से उन्हें अमृत मिलता जो उन्हें अमर कर देता।

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