डॉ. रमेश ठाकुर
हिंदुस्तान में अब भी कई ऐसे संस्थान हैं जहां हिंदी का प्रचलन न के बराबर है वहां शुरुआत की जानी चाहिए। आईआईटी जैसे संस्थानों में हिंदी का प्रसार किया जाना चाहिए। बोलचाल में भी अपनी जमीनी भाषा का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए।
भारत के मुकाबले विदेशों में हिंदी को समझने और जानने का प्रचलन पहले से ज्यादा बढ़ा है। विश्व की तकरीबन बड़ी यूनिवर्सिटी में हिंदी का पठन-पाठन किया जाने लगा है। अमेरिकी महिला लेखिका, नाट्यकर्मी व हॉलीबुड अभिनेत्री कमलेश चौहान गौरी अमेरिका में हिंदी के प्रसार के लिए सालों से सतत प्रयास कर रही हैं। उनके लिखे दो उपन्यास ‘सात समंदर पार‘ और ‘सात फेरों से धोखा‘ अमेरिका में काफी पढ़े जा रहे हैं। दोनों उपन्यास में उन्होंने तल्ख सच्चाई को कुरदेने की कोशिशें की। पिछले दिनों वह भारत में थी, उसी दौरान उनसे डॉ. रमेश ठाकुर ने विस्तृत बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश।
आप अपनी संस्था ‘जागृति समूह‘ के जरिए अमेरिका में महिला सशक्तीकरण की भी अलख जगा रही हो?
मैंने कई नाटकों का निर्देशन किया है जो सभी महिला सशक्तिकरण पर आधारित हैं। इसके अलावा मैंने अमेरिका में सबसे ज्यादा फेमस हुए ‘अनारकली‘ ‘सिंहासन खाली है‘ ‘मिर्जा साहिब‘ पती-पत्नी और मकान जैसे नाटकों में अभिनय भी किया है। मेरी संस्था एनआरआई लोगों द्वारा पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए काम करती है। महिला सशक्तिकरण के मुद्दों पर भारत में मुझे बुलाया जाता है। इस मुद्दे पर मैं सालों से व्याख्यान दे रही हूं। भारत सरकार के आमंत्रण पर मैंने विज्ञान भवन में कई व्याख्यान दिए हैं। भारत सरकार से मैंने मांग की है कि यहां से जो एनआरआई शादी करके ले जाए उसकी पूरी जांच पड़ताल की जाए। यही बात मैंने अमेरिकी सरकार से भी की है। मेरी शिकायत पर अमेरिका के रजिस्टृार ने मुझे बुलाकर कई तरह की जानकारी मांगी।
इस बात में कितनी सच्चाई है कि हिंदुस्तान के मुकाबले विदेशों में हिंदी का प्रचलन ज्यादा बढ़ रहा है?
बहुत तेजी से। प्रत्येक विश्वविद्यालयों में हिंदी का पठन-पाठन तेजी से आरंभ हुआ है। विदेशी धरती पर जो सिर्फ अंग्रेजी को ही माईबाप मानते थे, अब ऐसे लोगों का हिंदी साहित्य और लेखन से जुड़े लोगों के प्रति नजरिया बदला है। वह अब मान-सम्मान देने लगे हैं। हिंदी की दुनिया असंख्य है जिसका विस्तार अब युद्वस्तर पर शुरू हो चुका है। अमेरिका के विश्वविधालयों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी है। न्यूजर्सी में मैं खुद हिंदी की क्लास लेती हूं। हिंदी भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे संसार में तेजी से फैलती जा रही है। इस भाषा को सहजता से सीखा जाए इसके लिए कुछ यूनिवर्सिटीज में रिसर्च तक शुरू हो गए हैं। हिंदी को अब हम कमत्तर नहीं आंक सकते है। एक जमाना था जब हिंदी जुबानी लोगों को विदेशों में बड़ी हिराकत की नजारों से देखा जाता था लेकिन बदलते समय के साथ अब विदेशों में हिंदी बोलने वालों को इज्जत दी जाती है।
आपके उपन्यास ‘सात समुंदर पार‘ और सात फेरों से धोखा‘ की पाठक संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ है, कोई खास वजह?
उनमें तल्ख सच्चाईंयों को बयां किया है। मैंने अपने उपन्यास ‘सात फेरों से धोखा‘ में उन धोखेबाज एनआरआई पर कटाक्ष किया है जो हिंदुस्तानी लड़कियों से विवाह करने के कुछ समय बाद छोड़ देते हैं। उपन्यास में मैंने कई सच्ची घटनाओं का जिक्र किया है। विगत कुछ सालों में इस तरह के केसों में बाढ़ सी आई है। इस उपन्यास की सफलता को लेकर ही मुझे साउथ एशिया मेग्जीन द्वारा ‘एलाइट अवार्ड‘ से नवाजा गया। साथ ही पंजाब साहित्य अकादमी ने भी सम्मानित किया। मेरे दूसरे अपन्यास के लिए मुझे ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया ने वुमेन ऑफ द ईयर सम्मान से सुशोभित किया। इसके अलावा हिंदी को बढ़ावा देने के लिए मेरे द्वारा लिखी गई दर्जनों किताबों के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शुभकामनाएं दी हैं।
आपका जन्म हिंदुस्तान में ही हुआ है?
जी हां! मेरा जन्म भारत में ही हुआ है। मेरी मां कश्मीर से हैं और पिता पंजाब से। पिता जी आर्मी अधिकारी रहे हैं। अमेरिकी नागरिकता लेने के बाद भी हमारे भीतर हिंदुस्तान बसता है। मेरे दो बेटे हैं और दोनों ही अमेरिका में बड़े अधिकारी हैं लेकिन घर का वातावरण हिंदी में रमता है। हम अपनी जमीन से कभी जुदा नहीं हुए। हमें अपनी मिट्टी से बेपनाह मोहब्बत है। मेरा पूरा परिवार रोजाना हिंदी के ई-पेपर पढ़ता है। मेरे बेटों को सभी हिंदी अखबारों और न्यूज चैनलों के नाम याद हैं।
लेखन की दुनिया में कैसे आना हुआ आपका?
दरअसल, हिंदी को अंग्रेजी मुल्कों में दलिद्र माना जाता रहा है। एक वक्त था जब कोई विदेश में जाकर हमारा भारतीय हिंदी बोलता था तो उसकी मजाक बनाई जाती थी। ये देखकर मुझे बड़ा दुख होता था। तभी से मैंने हिंदी को अमेरिका में बढ़ावा देने की ठानी और उठा ली कलम। मैं अपनी मुहीम में आज खुद को सफल होते हुए देख रही हूं। मेरे साथ अब लाखों लोगों को जुटान है। यूएनए में जब किसी भारतीय नेता ने हिंदी में भाषण दिया तो लोगों की मानसिकता में काफी बदलाव आया। हिंदी सीखने की ललक आज अंगे्रजों में जिस कदर बढ़ी है उसे देखते ही बनती है। ऐसे लोगों की मेरे पास रोजाना मेल और संदेश आते हैं।
हिंदी को बढ़ाना देने के लिए भारत सरकार को और क्या करना चाहिए?
देखिए, हिंदी और अंग्रेजी के बीच में पनपा शर्मिंदगी का भेद अब मिट चुका है। हिंदी अब सशक्त भाषा के रूप में उभरी है। सरकार अपने स्तर पर प्रयासरत है। इसे प्रचलित करना हम नागरिकों की पहली जिम्मेदारी बनती है। भारत सरकार को अपने यहां से शुरुआत करनी चाहिए। हिंदुस्तान में अब भी कई ऐसे संस्थान हैं जहां हिंदी का प्रचलन न के बराबर है वहां शुरुआत की जानी चाहिए। आईआईटी जैसे संस्थानों में हिंदी का प्रसार किया जाना चाहिए। बोलचाल में भी अपनी जमीनी भाषा का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए।