सूरतगंज के एक निजी अस्पताल में प्रसव के दौरान एक प्रसूता की मौत की घटना ने एक बार फिर से स्वास्थ्य सेवाओं की उस हकीकत को सामने ला दिया है, जहां मुनाफा मानवता पर भारी पड़ता नजर आता है। एक ओर जहां तकनीकी और चिकित्सा के क्षेत्र में निरंतर प्रगति हो रही है, वहीं दूसरी ओर ऐसी घटनाएं यह सवाल खड़ा करती हैं कि क्या इन उपलब्धियों का लाभ वास्तव में आमजन तक पहुँच पा रहा है?
रूबी नामक महिला की ऑपरेशन के बाद बिगड़ी हालत और इलाज के अभाव में हुई मौत न केवल एक परिवार का दुःख है, बल्कि यह पूरे तंत्र पर एक करारा तमाचा है। सबसे गंभीर बात यह रही कि घटना के बाद अस्पताल का स्टाफ मौके से फरार हो गया — यह अपराधबोध का नहीं, बल्कि गैरजिम्मेदारी का परिचायक है।
स्वास्थ्य विभाग का अस्पताल को नोटिस देना और पूर्व में भी छापा पड़ना इस बात की पुष्टि करता है कि लापरवाही की पृष्ठभूमि पहले से मौजूद थी। लेकिन सवाल उठता है — जब पूर्व में चेतावनियां दी गई थीं तो फिर अब तक कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं हुई? क्या विभाग केवल कागज़ी कार्रवाई तक सीमित है? या फिर स्वास्थ्य व्यवस्था में निजी अस्पतालों की मनमानी पर लगाम कसने की मंशा ही नहीं है?
इस घटना ने यह भी उजागर किया है कि ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं कितनी असुरक्षित हैं। जब ज़िंदगी दांव पर हो और विकल्प सीमित हों, तब लोग मजबूर होकर किसी भी अस्पताल का रुख करते हैं, चाहे वह कितना ही गैरप्रशिक्षित या अव्यवस्थित क्यों न हो।
अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य विभाग न केवल कड़ी कार्रवाई करे, बल्कि एक दीर्घकालिक रणनीति बनाए जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं अधिक पारदर्शी, जवाबदेह और जनसुलभ बन सकें। इसके साथ ही, निजी अस्पतालों की लाइसेंस प्रक्रिया और संचालन पर नियमित निगरानी सुनिश्चित की जाए।
यह केवल एक मां की मौत नहीं है — यह एक व्यवस्था की विफलता का शोकगीत है। अगर अब भी हम नहीं जागे, तो अगली बार यह दुर्घटना किसी और की मां, बहन या बेटी के साथ हो सकती है।