लुंबिनी

लुंबिनी

भगवान बुद्ध का जन्म स्थल लुम्बिनि (लुंबिनी) नेपाल की तराई में भारत-भनेपाल सीमा से लगभग 10 किलोमीटर दूर भैरहवा जिले में स्थित है। इसका वर्तमान नाम रुम्मिनदेई है, जिसकी पूर्व दिशा में एक छोटी सी नदी ‘तिलर’ बहती है। तराई में होने के कारण चारों ओर हिम आच्छादित अत्रपूर्णा, मत्स्यपुच्छ व धवलगिरी की चोटियां यहां की दृश्यावली को अत्यंत मनोरम बना देती हैं।

भगवान बुद्ध के जन्म से संबंधित वर्णन हमें अनेक बौद्ध ग्रंथों से प्राप्त होता है। उनकी माता रानी महामाया ने एक अत्यंत विचित्र स्वप्न देखा। उन्होंने देखा कि चारों दिशाओं के रक्षक देवों ने उन्हें पलंग सहित उठा लिया। उनका पलंग मानसरोवर (अनोतत्त/अनवतथ्य्त) झील के समीप एक साल वृक्ष के नीचे रखा। उन्होंने उनको झील के पवित्र जल में स्नान कराया तथा दिव्य वस्त्र पहनाए, सुगंध (इत्र) व पुष्पों के द्वारा श्रृंगार किया। इसके बाद उन्हें समीप की पहाड़ी पर बने स्वर्ण महल में ले जाया गया। यहां वह पूर्व की ओर मुख करके स्वर्ण पलंग पर विश्राम करने लगीं। अभी उन्होंने तकिये पर सिर रखा ही था कि उन्हें एक छह (गज) दन्त वाले सफेद हाथी के दर्शन हुए। हाथी पवित्र पहाड़ी पर आया तथा स्वर्ण महल में उत्तरी प्रवेश द्वार से घुसा। उसने अपनी सूंड में सफेद कमल-पुष्प पकड़ रखा था। हाथी ने रानी महामाया के चारों ओर तीन चक्कर काटे और अपनी सूंड द्वारा उनके दाहिने भाग को छूने के बाद उनके गर्भ में प्रवेश कर गया।

रानी ने उपरोक्त स्वप्न का वर्णन राजा शुद्धोधन को बताया। राजा ने ज्योतिषियों से सलाह ली। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि रानी महामाया एक पुत्र को जन्म देंगी जो या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या बुद्ध बनेगा।

रानी महामाया कोलियों के राजा की पुत्री थीं, जिनकी राजधानी देवदह थी। बच्चे के जन्म का समय निकट आने पर परंपरा के अनुसार रानी ने राजा शुद्धोधन से अपने मायके जाने की आज्ञा लेकर स्वर्ण पालकी में बैठ कर कपिलवस्तु से अपनी बहन प्रजापति तथा अन्य सेविकाओं आदि के साथ प्रस्थान किया। कपिलवस्तु से
देवदह जाने के मार्ग विद्यास्थित था जो विभिन्न प्रकार के फूलों व फलों के पेड़ों ये आदत था। यहां कुछ देर विश्राम करने के लिए रानी रुकीं और एक साल के नीचे पहुंची। उसी समय उन्हें प्रसव पीड़ा हुई और साल वृक्ष की स्वयं झुक गई, जिससे रानी उसे पकड़ सकें।

इसी स्थिति में शिशु महामाया के शरीर के दाहिने भाग से बाहर आये। उन्हें शक (इन्द्र) तथा अन्य देवताओं ने एक बढ़िया वत्र पर ग्रहण किया। जब रानी महामाया अपनी बहन प्रजापति की सहायता से समीप के तालाब में स्नान कर रही श्री नवजात शिश ने देवताओं व मनुष्यों को आश्चर्यचकित करते हुए शक्र और ब्रह्मा के हाथों से उत्तर कर चारों दिशाओं में सात कदम चल घोषणा की कि यह उनका अंतिम जन्म है। जहां-जहां उन्होंने कदम रखे वहां-वहां कमल के फूल खिल उठे। स्वर्ग में भी प्रसन्नता फैल गई तथा देवताओं ने उन पर फूलों की वर्षा कर दी। यह पवित्र दिन वैशाख पूर्णिमा का दिन था। इस समाचार से कपिलवस्तु व देवदह में खुशियां फैल गई। इस प्रकार भगवान के अनुयायियों के लिए संपूर्ण पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ पूज्य स्थल लुंबिनी बन गया।
ऐसा माना जाता है कि भगवान बुद्ध के जन्म के समय ही यशोधरा (जो उनकी पत्नी बनीं), छन्द या छन्न (जो सिद्धार्थ का सेवक व सारथी था) और कन्थक (सिद्धार्थ का प्रिय घोड़ा, जिस पर चढ़ कर वे महाअभिनिष्क्रमण के लिए गए थे) ने भी जन्म लिया। उसी समय पड़ोस के चार राज्यों के उत्तराधिकारियों बिंबिसार, प्रसेनजित (पसेनदि), प्रद्योत और उदयन ने भी जन्म लिया। इस विषय में ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ भी कहना कठिन है। सिद्धार्थ के जन्म के कुछ समय बाद असित नाम के संन्यासी शिशु को देखने के लिए राजा शुद्धोधन के दरबार में आए। जब शिशु को असित के समक्ष लाया गया तो शिशु ने असित के सिर पर अपना पैर रखा जो इस बात को दर्शाता है कि महान ऋषि आदि उनके अनुयायी बनेंगे।

भगवान बुद्ध के काल में लुंबिनी, कपिलवस्तु आदि का बहुत महत्व था। भगवान के परिनिर्वाण’ के बाद उनके जीवन से संबंधित अन्य स्थलों की तरह लुंबिनी भी समस्त बौद्धों के लिए तीर्थ स्थल और राजाओं की श्रद्धा व प्रेरणा का स्रोत बना।
सम्राट अशोक ने बौद्ध तीर्थ स्थलों की अपनी यात्रा के समय यहां पहुंच कर अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित किए थे और कुछ स्मारकों का निर्माण कार्य करवाया था। भगवान के जन्म के लगभग एक हजार साल बाद प्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री फा-यान सन 406 ईसवी में लुंबिनी आए और उस वृक्ष को देखा, जिसके नीचे भगवान का जन्म हुआ था। उन्होंने उस तालाब को भी देखा, जहां रानी महामाया ने स्नान किया था। सन 637 ईसवी में एक अन्य प्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री युवान् च्वांग (हुयेन सांग) ने भी लुंबिनी के दर्शन किए। उन्होंने इस पवित्र स्थल का जो वर्णन किया, वह वर्तमान स्थल के खंडहरों को पहचानने में सहयोग देता है और इस स्थल के प्राचीन स्वरूप की प्रस्तुत करता है। उन्होंने लिखा है कि इस उद्यान में शाक्यों का एक सुंदर नहाने का तालाब था जिससे लगभग 24 कदम दूर वह प्राचीन अशोक वृक्ष था, जिसके नीचे भगवान बुद्ध ने इस संसार में जन्म लिया। इसके पूर्व में अशोक स्तूप था जहां दो नागों ने नवजात शिशु को गर्म व ठंडे जल से नहलाया था। इसके पूर्व की ओर दो स्तूप व झरने थे जो भगवान के जन्म के समय उत्पन्न हुए थे। इनके दक्षिण की ओर एक स्तूप उस स्थल पर था जहां इन्द्र ने नवजात शिशु (सिद्धार्थ बुद्ध) को ग्रहण किया था। इसके आगे चार देवराजों के चार स्तूप थे जिन्होंने शिशु (सिद्धार्थ) के जन्म के बाद उनकी जिम्मेदारी ली थी। इन स्तूपों के निकट ही अशोक द्वारा स्थापित एक प्रस्तर स्तंभ था जिसके शीर्ष पर अश्व बना था। स्तंभ एक विद्वेषपूर्ण नाग के द्वारा किये गये वज्रपात के कारण मध्य से टूट गया था। उसका आधा भाग भूमि पर पड़ा था। स्तंभ के निकट दक्षिण-पूर्व की तरफ एक छोटी नदी बहती थी जिसे तेल नदी के नाम से जाना जाता था। यह मूल रूप से देवताओं द्वारा भगवान बुद्ध के जन्म के बाद उनकी मां के स्नान के लिए उत्पन्न किया गया शुद्ध तरल तेल का तालाब था, जो बाद में चलकर एक नदी के रूप में परिवर्तित हो गया था। परंतु उसके जल में तेलीय चरित्र बना हुआ था।
इस प्रकार मगध साम्राज्य के काल में राजा अशोक की श्रद्धा पाने के बाद यह स्थल आकर्षण व प्रेरणा का स्रोत बन गया। राजा हर्षवर्द्धन के काल में भी इस स्थल के प्रसिद्ध होने के साक्ष्य मिले हैं। अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त हमारी सूचना के मुख्य स्त्रोत चीनी बौद्ध यात्रियों के यात्रा-वृत्तांत ही हैं। 12वीं शताब्दी ईसवी तक यहां तीर्थ यात्रियों के आने के साक्ष्य तो हैं, परंतु इसके पश्चात अन्य बौद्ध तीर्थ स्थलों के समान यह भी जन-सामान्य की नजरों से ओझल हो गया।
सन 1896 ईसवी में प. फुहरर ने अशोक द्वारा लुंबिनी उद्यान में सिद्धार्थ के जन्मस्थान को शनि के लिए निर्मित प्रस्तर स्तंभ को खोजा, जिसके कारण यह स्थल बौद्ध अनुयायियों के समक्ष आ सका। बाबू पूर्णचन्द्र मुखर्जी ने सन 1899 इसी में हाईका कार्य कराया और अनेकों स्तूप, उमारतों आदि को खोज विकारण। पेपाली चौद्धों द्वारा भी यहां खुदाई का कार्य करवाया गया। सन 1933-अईसी में केस शयर जंग बहादुर राणा के निर्देश पर यहां खुदाई का कार्य हुआ। इस प्रकार यह अचेत प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ दुनिया के समक्ष वर्तमान रूप में आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

मुख्य स्मारक

अशोक स्तंभ- यहां से प्राप्त पुरावशेष की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु प्रस्तर स्तंभ है, जिस पर भौर्थ काल की अत्यंत सुंदर पॉलिश है। पत्थर चुनार की खान के हैं और उन पर छोटी-छोटी काली चित्तियां हैं। स्तंभ के मध्य तक एक खड़ी दरार है। इसका शीर्ष भाग टूट गया है, सभवतः बिजली गिरने के कारण। स्तंभ की ऊंचाई 24 फुट 3 इंच है। टूटे हुए भाग का, कमल के आकार का शीर्ष भाग ही आज उपलब्ध है, शेष भाग लुप्त हो गया है। स्तंभ पर भूमि से लगभग 11 फुट ढाई इंच की ऊंचाई पर अशोक का ओजस्वी अभिलेख है, जो भगवान बुद्ध के जन्म स्थल के ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करता है। स्तंभ का व्यास भूमि के निकट 8 फुट 3 इंच, अभिलेख के समीप 7 फुट 6 इंच और शिखर पर 6 फुट 6 इंच है।

अशोक के अभिलेख में उसके यहां आने का वर्णन है। अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है तथा भाषा प्राकृत (अशोकी) है। यह पांच पक्तियों में लिखा है तथा इसका मूल पाठ इस प्रकार है-

(1) देवानं पियेन पियदसि लाजिन वीसतिवसाभिसितेन
(2) अतनो-अगाच महियेते हि-बुधे-जाते शाक्यमुनि-ति
(3) सिला बीगड़भी-चा कालापिते सिलाथम्भे च उसपापिते
(4) हिद-भगवं जाते-ति लुंबिनी गामे उबलिके कटे
(5) अठभागिये-च।

इस अभिलेख में लिखा है कि अशोक ने अपने राज्यारोहण के 20 वर्ष बाद स्वयं इस स्थल पर आकर आदर प्रकट किया, जहां शाक्यमुनि बुद्ध ने जन्म लिया।था। उसने इस स्थल के चारों ओर पत्थर की दीवार बनवायी और एक स्मारक स्तंभका निर्माण करवाया। भगवान बुद्ध के यहां जन्म लेने के कारण लुंबिनी ग्राम की अपने उत्पादन का मात्र एक आठवां भाग कर के रूप में देने का निर्देश किया और शेष कर माफ कर दिया।

इस स्तंभ पर और भी कई अभिलेख हैं, जो समय-समय पर यहां आने वाले तीर्थयात्रियों द्वारा खुदवाए गए थे। इनमें से स्पष्ट तिब्बती लिपि में उत्कीर्ण अत्यंत प्रसिद्ध तिब्बती मंत्र ‘ओम मणि पदमे हुंम’ लिखा है।

स्तंभ के उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व की ओर ईंटों के दो छोटे स्तूप हैं, जिनकी नींव चौकोर है। दक्षिण-पश्चिम की ओर ईंटों की एक संतुलित आकार की नींव शेष है। ये तीनों स्मारक अशोक के स्तंभ के काफी बाद के हैं। स्तंभ के उत्तर-पूर्व की ओर एक टूटा हुआ कक्षनुमा आकार (खंडहर) है।

मुख्य मंदिर- स्तंभ के कुछ गज पूर्व की ओर एक आधुनिक मंदिर बना है, जिसकी छत सपाट है। इसके चारों ओर विस्तृत चबूतरा बना है। मंदिर के भीतर एक खंडित प्रतिमा है, जो लुंबिनी की संरक्षक देवी की मानी जाती है। इसे रूपादेई (रुपादेवी) तथा रुम्मिनदेई (रूम्मिनदेवी) के नामों से जाना जाता है। इन्हीं नामों के कारण इस स्थल का नाम लुंबिनी पड़ा। यह प्रतिमा भगवान बुद्ध के जन्म को दर्शाती है। यह लगभग मानवाकार है। इसमें माया देवी को अपने दाहिने हाथ से पेड़ की शाखा पकड़े हुए उसके नीचे खड़े दिखाया गया है। इनका बायां हाथ कमर पर है। उनके दाहिनी तरफ उनको सहारा देती हुई उनकी बहन महाप्रजापति गौतमी खड़ी हैं। साथ ही सिर पर मुकुट के साथ शक्र (इंद्र) को नवजात शिशु को ग्रहण करने की मुद्रा में दर्शाया गया है। भगवान बुद्ध की छोटी आकृति बनी हुई है और उनके सिर के चारों ओर प्रभा मंडल है। शक्र के पीछे एक अन्य पुरुष आकृति है जो संभवतः बहरा है। यह प्रतिमा बुरी तरह खंडित अवस्था में है। शैली की दृष्टि से ये प्रतिमाएं प्रारंभिक गुप्त काल की प्रतीत होती हैं।

आधुनिक मंदिर व चबूतरा पहले के बने एक भव्य सजावट वाले मंदिर व स्तूपों सहित अनेक गौण इमारतों के खंडहरों पर बना है। मंदिर की नींव को सन 1899 ईसवी में पी. सी. मुखर्जी ने खोद कर बाहर निकाला। पहले के मंदिर में ईंटों का गर्भ-गृह और एक आयताकार उपकक्ष था, जहां भगवान के जन्म को दशनि वाला दृश्य (प्रतिमा) प्रतिष्ठापित था। मंदिर की नींव अपने आप में अत्यंत उत्तम

प्रकार की है। लघु प्रक्षेपणों को छोड़ कर इसकी नींव सप्त रथ आकार की है और उत्कृष्ट शिल्पकारी को दर्शाती है। मुखर्जी द्वारा खोदे गए मंदिर की नींव और स्वा के खंडहर पूरी तरह वर्तमान मंदिर व चबूतरे के नीचे दब गए हैं।

संभवतः प्राचीन मंदिर उस स्थल को दर्शाता हो, जहां भगवान का जन्म हुआ था। अशोक द्वारा निर्मित पत्थर की दीवार इस वर्तमान मंदिर या इससे पहले के मंदिर की नींव के भीतर दब गयी है। आधुनिक मंदिर की सीढ़ियों के नीचे एक प्रमुख इमारत आयताकार भाग के सहित अंशतः दबी हुई है।

तालाब : मंदिर के दक्षिण में एक तालाब है, जो निस्संदेह वही तालाब है जहां भगवान की माता ने प्रसव के पश्चात स्नान किया था। इसकी स्थिति युवान च्वांग के वर्णन से भी मेल खाती है। इसके कगार की मरम्मत ईंटों द्वारा की गई है, जिसके कारण तालाब अपने प्राचीन स्वरूप के समान प्रतीत होता है।

अन्य स्मारक : तालाब के उत्तर-पूर्वी किनारे की ओर ईंटों के अनेक खंडहर हैं,

जिनमें से अधिकतर ईंटों के बने छोटे स्तूपों की नीवें हैं। इनमें से 6 स्तूप पूर्व से पश्चिम की तरफ एक पंक्ति में हैं। इनके नीचे पहले की नीवें भी हैं। तालाब के दक्षिण-पूर्वी किनारे के निकट चतुर्भुजीय ईंटों का एक विहार था, जिसके प्रागंण के चारों ओर व्यवस्थित कक्ष बने थे। इन कक्षों में से दो के फर्श बड़ी ईंटों के बने मिले हैं। इस विहार के ऊपर एक अन्य इमारत के अवशेष हैं, जो संभवतः बाद में बने विहार को दर्शाते हैं।

आधुनिक मंदिर की सीढ़ियों के पूर्व-दक्षिण की ओर कुछ दूरी पर लगभग 6 फुट ऊंची एक मंदिर की नींव है, जिसमें बड़े आकार की ईंटों का प्रयोग हुआ है। इसकी चारों दिशाओं की ओर मुख्य प्रक्षेपण है। पश्चिमी दिशा का प्रक्षेपण अन्यों से स्पष्टतः बड़ा है। संभवतः इस ओर स्तूप पर जाने के लिए सीढ़ियां रही होंगी।

मंदिर की पूर्वी सीढ़ियों की तरफ जाने वाले मार्ग के उत्तर में ईंटों के 16 स्तूपों का समूह है। मंदिर के उत्तर की ओर ईंटों के तीन छोटे स्तूप थे, जिनके आधार चौकोर थे। इनमें से बीच वाले स्तूप के नीचे एक अन्य स्तूप था।

इन स्मारकों के अतिरिक्त वहां और भी अनेक स्मारक (अर्शतः खुदाई किये हुए) हैं जो तिलर नदी के किनारे तक फैले हैं। इन सब को मुखर्जी के नेतृत्व में सन 1899 ईसवी में केसर शमशेर जंगबहादुर राणा के निर्देशों पर खोद निकाला गया
था। राणा द्वारा अन्य कलाकृतियां भी निकाली गई, जो वहां के पुराने गेस्ट हाउस में 7 रखी हैं। इनमें से प्रमुख हैं-कुषाण-कालीन मथुरा शैली का चित्तिदार बलुआ पत्थर का भगवान बुद्ध का सिर, गुप्त शैली की अनेकों फलकें और मिट्टी के अनेक शीश पत्थर की 9वीं-10वीं शताब्दी की मूर्तियां, जो बुद्ध, मंजूश्री (ज्ञान और प्रेम के देवता के रूप में बौद्ध देवकुल में इनका ऊंचा स्थान है), मैत्रेय, लोकेश्वर और भगवान के श्रावस्ती चमत्कारों को दर्शाती हैं, एक 8वीं-9वीं सदी की मिट्टी की फलिका जिस पर उस युग की लिपि में बौद्ध धर्मसार उत्कीर्ण है।
आधुनिक विहार : यहां पर दो आधुनिक विहार बनवाए गए हैं- पहला थेरवादी’ बौद्ध मंदिर है जो 1956 में कुशीनगर के भिक्षु चंद्रमणि महाथेर द्वारा निर्मित है और दूसरा एक तिब्बती मंदिर है।
प्राचीन स्मारकों के खंडहरों और आधुनिक विहारों के बनने से लुंबिनी समस्त बौद्ध अनुयायियों के लिए पुनः अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बन गया है।

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