सरकार यदि वास्तव में शिक्षा व्यवस्था व शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने की पहल पर अहम कदम उठाने के लिए अग्रसर है तो सबसे पहले विद्यालयों में बच्चों को मिलने वाली सुविधाओं पर रोक लगाकर उसी धनराशि को अभिभावकों के खाते में भेजनी चाहिए। और उस पर एक शर्त लागू करनी चाहिए कि यदि बच्चों की विद्यालय में 80 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज नहीं होती है तो सरकार द्वारा मिलने वाली सभी सुविधाएं रोक दी जाएगी। इस पहल से एक सार्थक परिणाम मिल सकता है। वही विद्यालयों में अध्यापकों को दिए जाने वाले अतिरिक्त प्रभार को भी कम करना चाहिए। बावजूद इसके यदि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का ग्राफ कम होता है तो वह दंड के प्रतिभागी है।

संदेश महल समाचार
वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है,यह टिप्पणी प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने चर्चित उपन्यास ‘राग दरबारी’ में की थी। यह उपन्यास आज से लगभग पचास साल पहले लिखा गया था। यह वह दौर था जब शिक्षा के लिए लोग सरकारी स्कूलों पर ही आश्रित थे। गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह निजी स्कूलों की भरमार नहीं थी। सरकारी स्कूलों की संख्या काफी कम थी। लेकिन स्थिति आज की तुलना में काफी बेहतर समझी जाती थी।ऐसे में यदि श्रीलाल शुक्ल की टिप्पणी पर आप थोड़ा भी विश्वास करते हैं तो फिर आपको यह भी मानना पड़ेगा कि अब तक तो इस व्यवस्था को इतनी लातें पड़ चुकी हैं कि यह मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई है। दशकों बीत गए,सुधार की आड़ में अरबों रुपये भी खप गए,पर, स्थिति बदली क्या? हम सब यह सुनते हुए थक चुके हैं कि-
शिक्षा से ही देश की तकदीर बदलेगी?
शिक्षा की तकदीर कैसे बदलेगी?
कौन बदलेगा?
कैसे बदलेगा?
बदलेगी भी कि नहीं?
तमाम सवालों के बीच शिक्षा व्यवस्था दम तोड़ती नजर आ रही है।
बच्चों के लिए सरकारी सुविधाएं

विद्यालयों में सरकार की ओर से कई सुविधाएं मिलती है। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को हर साल छात्रवृति,बैग, जूता,मोजा,टाई, बेल्ट, किताबें,ड्रेस, इसके अलावा हर दिन दोपहर में मध्यान भोजन योजना के तहत हर दिन अलग अलग मेनू के अनुसार भोजन मिलता है।सप्ताह में मौसमी फल देने की भी व्यवस्था है। साथ ही तमाम अन्य सुविधाएं बालक बालिकाओं को मुहैय्या कराई जाती है। वही अन्य सुविधाओं में शौच क्रिया के लिए शौचालय, पीने के लिए स्वच्छ पेयजल सुविधा, बैठने के लिए फर्नीचर डेस्क, गर्मी न लगे विद्युतीकरण के साथ पंखे की सुविधा, विद्यालय परिसर से बाहर खेलने के लिए न जाना पड़े चहारदीवारी आदि सुविधाओं से शिक्षा व्यवस्था सुसज्जित की गई है।
फिर भी सरकारी विद्यालयों में लगातार बच्चों की संख्या में कमी होती जा रही है। इसको लेकर विभाग भी गंभीर है। लेकिन इसका फायदा अभी तक नहीं हुआ। नामांकन प्रक्रिया के लिए विशेष अभियान भी चलाया जा रहा है। जिसमें विद्यालय के शिक्षक आसपास के गांवों में जाकर परिजनों से मिलकर उनके बच्चों का नामांकन विद्यालय में करवाएं। लेकिन यह भी अभियान नाकाम साबित हो रहा है।
छात्रों की उपस्थित का एक आंकड़ा
एक आंकड़ा की मानें तो अगर विद्यालय में 100 बच्चे नामांकित है। तो वहां नियमित में लगभग 50 या 60 छात्र ही मिलेंगे। 40 या उससे कम छात्र-छात्राएं हमेशा अनुपस्थित पाए जाते हैं।

अपनी बात
ग्रामीण क्षेत्र के लोग शौक में ऊंची शान दिखाने के नाम पर निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाते है। जबकि निजी विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों पर मानसिक दबाव ज्यादा रहता है।
सरकार यदि वास्तव में शिक्षा व्यवस्था में सुधार के साथ शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने की पहल पर अहम कदम उठाने के लिए अग्रसर है तो सबसे पहले विद्यालयों में बच्चों को मिलने वाली सुविधाओं पर रोक लगाकर उसी धनराशि को अभिभावकों के खाते में भेजनी चाहिए। और उस पर एक शर्त लागू करनी चाहिए कि यदि बच्चों की विद्यालय में 80 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज नहीं होती है तो सरकार द्वारा मिलने वाली सभी सुविधाएं रोक दी जाएगी। इस पहल से एक सार्थक परिणाम मिल सकता है। वही विद्यालयों में अध्यापकों को दिए जाने वाले अतिरिक्त प्रभार को भी कम करना चाहिए। बावजूद इसके यदि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का ग्राफ कम होता है तो वह दंड के प्रतिभागी है।

उत्तर प्रदेश के प्रधान महालेखाकार की वर्ष 2010-2015 की एक रिपोर्ट
बात 2010 से 2015 के मध्य की करते हैं तो
प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन बढ़ाने के लगातार प्रयास के बाद भी बच्चों के पंजीकरण में तेजी से गिरावट आई।ड्राप आउट बच्चों की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ। 2010-15 की अवधि में 2.75 लाख से लेकर 8.50 लाख तक बच्चों ने पढ़ाई के दौरान ही विद्यालय छोड़ दिया।
उत्तर प्रदेश के प्रधान महालेखाकार की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि मिड-डे मील प्राधिकरण के आंकड़ों के अनुसार 2009-10 की तुलना में 2014-15 में प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के नामांकन में 21.64 फीसदी की कमी आई।निजी स्कूलों में 61.79 फीसदी की वृद्धि हुई।
पंजीकरण के लिहाज से देखा जाए तो यह संख्या 17 लाख कम हो गई। इस अवधि में बच्चों की संख्या एक करोड़ पचास लाख से कम होकर एक करोड़ 33 लाख हो गई। लगभग यही हालत उच्च प्राथमिक विद्यालयों की है। आडिट रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि 2009-10 में प्रदेश में विद्यालयों की संख्या 1.08 लाख थी, इसमें 1.70 करोड़ बच्चे पंजीकृत थे जबकि निजी स्कूलों में 1.16 करोड़ बच्चों का पंजीकरण था। 2010-11 में प्राथमिक विद्यालयों में पंजीकरण में 7.03 फीसदी की कमी आई जबकि निजी स्कूलों में 5.09 फीसदी की वृद्धि हुई है। 2011-12 में विद्यालयों की संख्या में बढ़ोतरी के बाद भी पंजीकरण में 4.38 फीसदी कमी आई जबकि निजी स्कूलों में 26.99 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। 2012-13 में पंजीकरण में 5.62 फीसदी की कमी आई जबकि निजी स्कूलों पंजीकरण में 14.55 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। 2013-14 में मात्र 1.55 फीसदी की कमी तथा निजी में 1.45 फीसदी की मामूली वृद्धि दर्ज की गई। 2014-15 में सरकारी स्कूलों में पंजीकरण में 5.14 फीसदी की कमी तथा निजी में 4.72 फीसदी की वृद्धि हुई है।
बच्चे आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की उपलब्धियों के लिए निजी विद्यालयों की ओर आकर्षित हुए। परिणाम गुरु केवल धनार्जन के लिए शिक्षा देता है और शिष्य पैसे से शिक्षा मोल लेना चाहता है।

मेरे प्यारे अब मत सोओ।
सोहन लाल द्विवेदी की इस कृति से आप क्या शिक्षा ले सकते हो वह आप पर निर्भर है।
उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लायी हूँ मुंह धो लो।
बीती रात कमल दल फूले,
उसके ऊपर भँवरे झूले।
चिड़िया चहक उठी पेड़ों पे,
बहने लगी हवा अति सुंदर।
नभ में प्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई।
भोर हुई सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
नन्ही नन्ही किरणें आई,
फूल खिले कलियाँ मुस्काई।
इतना सुंदर समय मत खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।