बाराबंकी संदेश महल समाचार
संविधान शिल्पी डॉ भीमराव अंबेडकर जी के जन्मदिन को देश मे अत्यंत उत्साह से मनाया गया है। यह भारतीय समाज की उन्नत चेतना का प्रतिरूप है। निश्चित रूप से डॉ अंबेडकर अपने आसपास व्याप्त कुरीतियों के निवारण के लिए न सिर्फ लड़े बल्कि मौका मिला तो संविधान में कानून के रूप में इलाज भी दिया।आज लगभग सभी वैचारिकी के लोग अपने को डॉ अंबेडकर से जोड़ रहे हैं या यूँ कहिए कि डॉ अंबेडकर को अपने से जोड़ रहे हैं। जोड़ने को वे भी सबसे आगे आये हैं जो अबतक गलियों से नवाजते रहे हैं। हिकारत के भाव से निहारते रहे हैं। पता नहीं इन लोगों को अपनी गलती के एहसास ने अंबेडकर से निकटता स्थापित की है अथवा किसी उद्देश्य विशेष से अंबेडकर दर्शन के पंडित बनने को उतावले दिख रहे हैं.?
बहुत अच्छी बात है कि जब जिसे समझ आये अपनी भूल स्वीकार करे और नए अवतार में समाज हितकारी कदम बढ़ाए। लोकतंत्र की ये बहुत अच्छी तस्वीर उभरी है कि अंबेडकर सर्वस्वीकृति की दशा तक पहुँच रहे हैं। ये भारतीय जनमानस की उदारता है अथवा किसी नई राजनीति का रंग.? इन सब नए अनुयायियों के लिए विशेष तौर पर जन्मदिन की बहुतेरी शुभकामनाएं। शुभकामनाएं इस बात के लिए भी कि हर वर्ग, जाति, धर्म के लोगों ने अपना उदारचरित्र दिखाया है और अंबेडकर के जीवन-सिद्धांत को अनुचित कहना बन्द तो कर दिया है किन्तु क्या स्वीकार भी कर सके हैं.? यदि ये सभी अनुयायी (सपा, बसपा, भाजपा, लोकदल, अपनादल, आप सहित अन्यान्य दल) वाकई बिना किसी छलछद्म के सच्चे मन से डॉ अंबेडकर के जीवन-सिद्धांत को स्वीकार कर रहे हैं तो निश्चित ही कम समयान्तराल में भारतीय समाज एक श्रेष्ठ स्तिथि में पहुँचने वाला है। जो अत्यंत सुखद होगा। किन्तु आग और पानी एक साथ रह तो सकते हैं, किन्तु एक में घुल मिल नहीं सकते। घुलने मिलने का मतलब एक के अस्तित्व का मिट जाना। जिसकी मात्रा ज्यादा होगी वो अगले को मिटाएगा। यानी या तो आग बुझेगी या पानी मिटेगा।मुझे लगता है कि डॉ अंबेडकर को लेकर तेजी से बदल रही स्थितियों पर पुनः चिन्तन की महती आवश्यकता है। महापुरुष किसी जाति धर्म वर्ग जैसे किसी संकुचित दायरे में नहीं समेटे जा सकते। किन्तु यह भी उतना ही सच है कि सभी के लिए स्वीकार्य नहीं होते हैं। राम को मानना राम की मानना, लोहिया को मानना लोहिया की मानना, अम्बेडकर को मानना अंबेडकर की मानना एक बड़ा सवाल तो है ही। इन्ही दो गम्भीर सवालों के बीच पूरी की पूरी पटकथा को समझने की अत्यंत आवश्यकता है। जो समझदार हैं वे समझें, जो नहीं समझदार हैं, वे अपने को समझदार होने तक इन्तेजार करें। कहा तो लोहिया ने था कि “मेरे मरने के सौ साल बाद लोग मुझे समझेंगे”। किन्तु यह कथ्य लागू हो रहा है डॉ अंबेडकर पर।भारतीय दर्शन के दो बड़े पुरोधाओं पर एक जैसी स्थिति लागू होती है- स्वामी विवेकानंद और डॉ अंबेडकर। दोनों महापुरुष अत्यंत उर्वर मष्तिष्क के स्वामी रहे। दोनों ने बनी बनाई लीक पर चलने में असहज महसूस किया। दोनों ने कुछ नया गढ़ने की कोशिश की। दोनों भारत को नई पहचान देने में कामयाब रहे। दोनों ने अपने पूर्वार्ध जीवन की कमियों त्रुटियों को अपने उत्तरार्ध जीवन में सुधार किया है। दोनों ने आम इंसान के जीवन की दुश्वारियों को समझा है और अपने अपने तरीक़े से समाधान दिए हैं। दोनों के अनुयायी पूर्वार्ध जीवन को पढ़कर फुले नहीं समाते हैं। दोनों के अनुयायी उत्तरार्ध जीवन के अनुभव जनित उपलब्धियों उपदेशों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। दूध के मंथन की आखरी स्टेज मक्खन है और मक्खन के बाद घी। किसी महापुरुष के जीवन दर्शन का घी प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है। विवेकानन्द और अंबेडकर में यह भी समानता है कि इनके अनुयायी दूध, दही, मक्खन तक ही रह जाते हैं। घी प्राप्ति का मार्ग अपनाते ही नहीं।समस्या है सेलेक्टिव पढ़ने की आदत। सेलेक्टिव पढ़ना महापुरुष के प्रति अन्याय है। वास्तव में जरूरत है समग्रता में पढ़ने की।