लाल बत्ती से चलने वाली जूली बकरियां चराकर चलाती जीविका

रिपोर्ट
जेपी रावत
संदेश महल समाचार

कभी अर्श पर कभी फर्श पर,कभी उनके दर कभी दरबदर।
गम ए आशिकी तेरा शुक्रिया,मैं कहां कहां से गुजर गई।

शायर के यह अल्फाज़ जूली की मुकम्मल जिंदगी की दास्तां को कुछ इस तरह बयां कर रहे हैं कि सुनकर एक बार हतप्रभ होने को विवश कर देते हैं।

जिंदगी की जमीनी हकीकत को बयां कर रही जूली के जिंदगी का सफर आइए जानते हैं?

समय का फेर कब किसे राजा से रंक और रंक से राजा बना दे यह किसी को नहीं पता। वक्त की गर्दिश में जिंदगी गुजार रही जूली की जिंदगी ने कुछ इस अंदाज में करवट लिया कि लाल बत्ती में घूमने वाली जूली आज बकरियां चराकर परिवार की जीविका चलाने पर विवश है।

बताते चलें कि मध्यप्रदेश के जिला शिवपुर में रहने वाली आदिवासी जूली जिले की पूर्व अध्यक्ष रह चुकी हैं। जो कभी लाख बत्ती में घूमा करती थी। लेकिन आज वो गुमनामी के अंधकार में परिवार की परवरिश कर रही है।
जूली कोलारस के पूर्व विधायक राम सिंह यादव ने जूली को साल 2005 में जिला पंचायत सदस्य चुना था। पंचायत का सदस्य बनने के बाद शिवपुरी के पूर्व विधायक वीरेंद्र रघुवंशी ने उन्हें सीधा जेल का पंचायत अध्यक्ष ही बना दिया। उन्होंने 5 साल इस जिम्मेदारी को संभाला, जिसके कारण उनका दर्जा बढ़ गया।
एक समय ऐसा था जब जूली मंत्रियों की तरह लाल बत्ती वाली गाड़ी में घूमा करती थी। हर कोई उन्हें आदर-सम्मान के साथ मैडम कहकर बुलाता था। मगर, बुरे वक्त में हर किसी ने उनसे मुंह मोड़ लिया है। आज वह सड़कों पर बकरियां चरा रही हैं। देखते ही देखते समय ऐसा बदल गया कि अपने परिवार का पेट भरने के लिए जूली यह काम करने को मजबूर हो गई हैं।


5 सालों का कार्यभार संभालने के बाद जूली को एक बार हार का सामना करना पड़ा, जिसकी वजह से उन्हें पंचायत से निकाल दिया गया। पद और नाम छिन जाने के बाद जूली को परिवार का पेट भरना था, जिसके लिए उन्होंने मजदूरी के काम को ही सही समझा।
हालात खराब हुए तो जो कल सलाम बजाते थे वहीं आज मुंह फेर कर निकलने लगे। वक्त ऐसा आया कि उन्हें पहचानने से भी कतराते हैं। यहीं नहीं, वक्त की मार के चलते जूली को टपरी में रहना पड़ रहा है।सरकारी जमीन पर झोपड़ी बनाकर जूली रह रही हैं।


इंदिरा आवास योजना के तहत जूली को कुटीर स्वीकृत हुई लेकिन वो भी भ्रष्टाचार के चलते छिन गई। अब वह सरकारी जमीन झोंपड़ी बनाकर रह रही हैं, जिसकी हालत भी कुछ खास सही नहीं है। बकरी चराने उन्हें हर महीने 50 रु मिलते हैं, जिससे वह परिवार कता पालन-पोषण कर रही हैं। जब बकरियां नहीं होती तो वह खेत में मजदूरी करती हैं। कई बार खेती का काम ना मिलने पर वह गुजरात जाकर मजदूरी करती है। वक्त की गर्दिश ने जूली अर्श से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया।