जयप्रकाश रावत
संदेश महल समाचार
उत्तर प्रदेश के जनपद बाराबंकी के विकास खंड की ग्राम पंचायत कुसुंभा में बासुकी खागलदेव का मंदिर सर्पदंश से पीड़ितों के विषहरण के लिए प्रख्यात है। लोगों की अटूट आस्था होने के कारण यहां नाग पंचमी को सर्पदंश पीड़ितों का मेला लगता है। यहां सर्पदंश पीड़ितों को नीम की दो पत्ती खिलाई जाती है। बाबा की चौखट पर स्नान कराया जाता है। धारणा है कि खागल बाबा के जयकारे लगाने से नया जीवनदान मिलता है। यहां सर्पदंश से पीड़ित लोगों का तांता लगा रहता है।
जिला मुख्यालय से चौबीस किलोमीटर दूरी पर स्थित गांव कुसुंभा में बासुकी खागल देव का मंदिर स्थापित है। कहा जाता है कि लगभग 112 वर्ष पूर्व खागल देव बाबा साधु के भेष में कुसुंभा आए थे। कई दिनों तक गांव में रुकने के बाद और ग्रामीणों की लाख मिन्नतों पर भी भोजन नहीं किया। गांव के सभी ग्रामीण एकत्र होकर बाबा पर भोजन करने के लिए दबाव बनाने लगे तो बाबा ने कलोरी गाय (बिना बच्चे वाली) का दूध ग्रहण करने की इच्छा जताई। यह सुनकर गांव के लोग चकित रह गए क्योंकि कलोरी गाय दूध नहीं देती है। खागल बाबा की इच्छा के अनुसार फिर भी गांव वालों ने ऐसी गाय का प्रबंध कराया और दो कच्ची नांदें बनवाईं। उन नादों को एक स्थान पर रखकर चारों ओर से घास की टटिया लगाकर बंद कर दिया गया। बाबा ने जैसे ही कलोरी गाय पर हाथ फेरा तो गाय के थन से दूध की धाराएं बह निकलीं। देखते ही देखते दोनों मिट्टी की नांदें दूध से लबालब भर गईं। इस दौरान खागल बाबा साधु का भेष बदलकर नाग देवता के रूप में आ गए और दूध पीने लगे। इस दौरान एक व्यक्ति ने शरारतन पास स्थित नीम के पेड़ पर चढ़कर बाबा की यह लीला देखने लगा। यह बात खागलदेव बाबा को नागवार लगी और वह व्यक्ति पत्थर के टुकड़ों के रूप में नीचे आ गिरा। उन पत्थर के टुकड़ों के अवशेष आज भी मंदिर के पूरब दिशा में स्थापित हैं।
बासुकी खागल देव का यह करिश्मा देखकर ग्रामीण भयभीत हो उठे। जिस पर बाबा ने ग्रामीणों से कहा कि घबराओ मत, जो मांगना हो मांग लो। इस पर ग्रामीणों ने कहा कि सर्पदंश से पीड़ितों को नया जीवन मिले। इस पर बाबा ने कहा कि जो इस स्थान पर सर्पदंश पीड़ित आकर दो नीम की पत्ती खाकर स्नान करेगा और खागल बाबा के जयकारे लगाएगा। उसे सर्पदंश के विष से मुक्ति मिलेगी। यह कहकर बाबा बांबी में अंतध्र्यान हो गए। उसी स्थान पर ग्रामीणों ने खागलदेव का भव्य मंदिर का निर्माण कराया। जहां नाग पंचमी को विशाल मेला लगता है। दूर-दराज से भारी संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचकर बाबा की बांबी पर दूध चावल चढ़ाकर मनोवांछित फल व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
बाराबंकी शहर से पांच किलोमीटर दूर मजीठा गांव के नाग देवता मंदिर में सावन के पवित्र महीने में मेला लगता है. इस दौरान नाग देवता के दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगता है. नाग देवता के दर्शन करने के लिए प्रदेश के कई जिलों से लोग बाराबंकी पहुंचते हैं. ऐसी मान्यता है कि सावन के पूरे महीने और नागपंचमी के दिन इस मंदिर में जो भी श्रद्धा भक्ति से मन्नत मांगता है, वह पूरी हो जाती है।
आखिर क्यों पड़ा मजीठा नाम
प्राचीन काल की बात है मन्दिर के स्थान पर मंजीठ नाम के पेड थे उन पेड़ो में मंजीठ नाम का एक रंग व औषधि प्राप्त होती थी।इसलिये इसका नाम मंजीठ से मजीठा पड़ गया। मजीठा में विशाल घाना जंगल होने के कारण कुछ दिखाई नहीं देता था।एक बार की बात है एक दिन गाँव में किसी की गाय जंगल में चली गई और बहुत देर बाद गाँव नहीं आई तो गाँव वाले हिम्मत जुटा कर जंगल में गाय खोजने गए।तो यह देखा की सभी गाये एक सरोवर में स्नान कर रही है और एक संत सरोवर के किनारे तपस्या लींन है। गाँव वाले गायो को लेकर गाँव वापस आ गए और सब गाव वाले मिलकर संत को गाँव में आदर सत्कार के लिए बुलाने के लिए सोचा और सब चल पड़े संत के सामने गांव आने का प्रस्ताव रखा तो संत ने मना कर दिया और वे गाँव नहीं गए।तब संत ने कहा की अगर आदर सत्कार करना ही है तो नाग देवता का करो वे कई वर्षो से यहाँ इस बांबी (छोटी सुरंग) में विराजमान है। और बगल में पुरनिया (तालाब) है उसमे स्नान करके नाग देवता को श्रद्धा पूर्वक मिटटी के बर्तन में दूध और चावल चढ़ा दें। आप सबका कल्याण होगा। यहाँ पर व्यक्ति सर्प विषमुक्त हो जायेगा ! संत की बातो को सब गाँव वालोने सम्मान करते हुए वैसा ही किया ।संत नागा पंथ के थे इसलिए उन्हें सब नागादास बाबा कहने लगे ! तथा कुछ वर्षो बाद संत ब्रम्हलीन हो गए उनकी समाधि बना दी गयी।तभी से यह प्रथा श्री नाग देवता मेला मंजीठा धाम के रूप में हर साल मानते है।