जयप्रकाश रावत
बाराबंकी, जो उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के नजदीक स्थित है, अपनी ऐतिहासिक धरोहर और वीरता की गाथाओं के लिए जाना जाता है। यह वह भूमि है जहाँ स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिनगारी 1857 में सुलगी थी, और फिर आगे चलकर 1947 तक कई अनगिनत शहीदों ने अपनी जान की आहुति देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को तेज़ी से दिशा दी। यहां के रणबांकुरों ने न केवल अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह किया, बल्कि अपने साहस और बलिदान से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अपना अमिट स्थान बनाया।इस जनपद की मिट्टी में कई वीरों की कहानियां दफन हैं, जिन्होंने न केवल अंग्रेजी शासन को चुनौती दी, बल्कि अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। यदि हम बाराबंकी के स्वतंत्रता संग्राम को देखें, तो यह भूमि उन शूरवीरों की वीरता का प्रमाण बन चुकी है, जिन्होंने अपनी निष्ठा और साहस के साथ देश की आज़ादी की दिशा को निर्धारित किया।
1857 की शुरुआत – बाराबंकी की भूमि पर संघर्ष की लहर
1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का वह महत्वपूर्ण मोड़ था, जब देशभर के लोगों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया। इस संग्राम में बाराबंकी की भूमि ने भी अपनी भूमिका निभाई। फैजाबाद से लखनऊ तक बढ़ती अंग्रेजी सेनाओं को बाराबंकी के स्वतंत्रता सेनानियों से निर्णायक युद्ध का सामना करना पड़ा। चिनहट की लड़ाई में जब अंग्रेजों को पराजय का सामना हुआ, तब 1857 में बाराबंकी में स्वतंत्र सरकार की स्थापना हुई थी, जिसमें यहां के रणबांकुरों और नेताओं का अहम योगदान रहा।
चंद्रशेखर तिवारी – एक बागी सपूत
बाराबंकी के गगौरा गांव के निवासी चंद्रशेखर तिवारी का जीवन स्वतंत्रता संग्राम की उस अनकही गाथा को जीवित करता है, जिसमें युवा भारतीयों ने अपने जीवन को मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया। चंद्रशेखर तिवारी ने अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद राजपूत रेजीमेंट की सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया। यह उनकी उस समय की सबसे बड़ी सैन्य ताकत थी, जो अंग्रेजों के अधीन कार्य करती थी। लेकिन उनके भीतर एक ज्वाला जल रही थी, और उन्होंने अंग्रेजों की राजपूत रेजीमेंट को छोड़कर आज़ाद हिंद फौज में भर्ती होने का निश्चय किया।नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में 1943 में चंद्रशेखर तिवारी ने कोलकाता (कलकत्ता) पहुंचकर आज़ाद हिंद फौज से जुड़कर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया। इसके बाद उनका संघर्ष अंग्रेजों के खिलाफ और भी तीव्र हो गया। जब अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ लिया, तो उन्होंने नासिक जेल में तीन वर्षों तक भयंकर यातनाएं सहीं, लेकिन उनके हौसले कभी कम नहीं हुए।
नासिक जेल – साहस और आत्मविश्वास की परीक्षा
चंद्रशेखर तिवारी का जीवन उस समय के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों से अलग था। जब उन्हें नासिक जेल में कैद किया गया, तो उन्होंने अपने साहस और आत्मविश्वास को बनाए रखते हुए अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। नासिक जेल में उनकी बहादुरी और शौर्य की ख्याति फैलने लगी। यहाँ तक कि लंदन टाइम्स के रिपोर्टर सर विलियम रसल ने भी उनकी वीरता की सराहना की। तीन वर्षों की कठिन यातनाओं के बाद जब चंद्रशेखर तिवारी को रिहा किया गया, तो उनका स्वागत महात्मा गांधी और पंडित नेहरू ने किया, जो स्वयं तांगे पर सवार होकर उन्हें लेने के लिए जेल के गेट तक पहुंचे थे।
भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी
नासिक जेल से रिहा होने के बाद चंद्रशेखर तिवारी ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। यह आंदोलन महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के नेतृत्व में 1942 में शुरू हुआ था, और चंद्रशेखर तिवारी ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्होंने कई आंदोलनों में हिस्सा लिया और अंग्रेजों के खिलाफ खुले तौर पर संघर्ष किया। उनका यह संघर्ष न केवल बाराबंकी बल्कि पूरे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक मील का पत्थर साबित हुआ।
गुमनाम नायक और समाज की उपेक्षा
चंद्रशेखर तिवारी की मृत्यु के 22 साल बाद भी उन्हें उचित सम्मान और श्रद्धांजलि नहीं दी गई। उनका समाधि स्थल आज भी उपेक्षित है और सरकारी लापरवाही के कारण उनका नाम तक शिलालेखों में दर्ज नहीं है। उनके परिवार ने कई बार अधिकारियों से आग्रह किया, लेकिन उनकी समस्याओं का समाधान आज तक नहीं हुआ। चंद्रशेखर तिवारी की वीरता और बलिदान के बावजूद उन्हें वह सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वे हकदार थे।
शौर्य भूमि की पुनः पहचान – आज का भारत
बाराबंकी के उन शहीदों की गाथाएं आज भी जीवित हैं। उनका संघर्ष, बलिदान और साहस हमें प्रेरणा देता है। यह हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम इन गुमनाम नायकों की यादों को जीवित रखें और उन्हें वह सम्मान दें, जो उनका हक है। हमें अपने वीर स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को नई पीढ़ी तक पहुँचाना चाहिए, ताकि उनका बलिदान कभी व्यर्थ न जाए और उनकी शौर्य गाथाएं हमेशा अमर रहें।