आत्ममंथन का समय: विद्यालय मर्ज और शिक्षकों की भूमिका पर एक दृष्टिपात

जयप्रकाश रावत (संदेश महल)
आज शिक्षकों और विद्यालयों के समक्ष जो चुनौतियाँ उभरकर सामने आ रही हैं—चाहे वह विद्यालय मर्ज हो, नामांकन की गिरती संख्या हो या विभागीय निगरानी तंत्र—वे केवल तात्कालिक समस्याएं नहीं हैं, बल्कि एक लंबे समय से चले आ रहे व्यवहार और दृष्टिकोण का परिणाम हैं। इस दौर में हम सभी को आत्ममंथन की आवश्यकता है।

शिक्षक समाज का एक बड़ा हिस्सा प्रायः कहता है—”दूसरों की परवाह क्यों करें? लोग तो कहेंगे ही।” परंतु सवाल यह उठता है कि क्या इस सोच से हम सचमुच शिक्षण व्यवस्था को बेहतर बना पाए हैं? यदि हम केवल विभागीय निर्देशों के अनुसार प्रार्थना सभा से लेकर छुट्टी तक ईमानदारी से पठन-पाठन करें, तो लगभग 80% समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाएंगी। शेष 20% समस्याओं का समाधान संगठनात्मक स्तर से किया जा सकता है—बशर्ते हमारी आंतरिक प्रतिबद्धता मजबूत हो।

विद्यालयों का मर्ज निश्चित ही चिंता का विषय है। परंतु इसका एक पहलू यह भी है कि कई विद्यालयों में छात्र संख्या नाममात्र रह गई है। कई स्थानों पर शिक्षकगण, ग्राम प्रधान, बीडीसी और अभिभावकों के सहयोग से छात्र संख्या में वृद्धि लाने में सफल भी हुए हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि इच्छाशक्ति हो तो परिवर्तन संभव है। नामांकन एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जिसे कोई प्रशासन या संगठन नहीं, बल्कि केवल और केवल शिक्षक ही बदल सकते हैं।

लेकिन प्रश्न यह भी उठता है—क्या हमने समय रहते आत्मनिरीक्षण किया? क्या हमने ऑनलाइन अटेंडेंस, सेल्फी अपलोडिंग जैसे comparatively छोटे विषयों पर जितना विरोध प्रकट किया, उतना मर्ज जैसे वास्तविक और स्थायी प्रभाव डालने वाले निर्णय पर किया?

जब सेल्फी या अटेंडेंस ऐप आया तो 99% शिक्षक सड़क पर उतर आए थे। पर जब विद्यालय बंद होने लगे, तब शिक्षकों की चुप्पी खलने लगी। क्या यह हमारी सामूहिक चूक नहीं है?

इसके साथ ही यह भी कटु सत्य है कि जो शिक्षक नियमित रूप से विद्यालय संचालित करते हैं, उनकी ईमानदारी खुद उनके लिए मुसीबत बन जाती है। फर्जी नामांकन चाहने वाले, गैर जिम्मेदार ग्राम समाज, विचलित सहयोगी स्टाफ—सभी किसी न किसी रूप में विरोधी बन जाते हैं। यह प्रवृत्ति हमारी जमीनी शिक्षा व्यवस्था के लिए घातक है।
अब समय आ गया है कि हम केवल विभागीय नियमों या संगठनों की ओर न देखें, बल्कि अपने भीतर झांकें। प्रश्न यह नहीं कि हमें क्या करना चाहिए, प्रश्न यह है—क्या हमने अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाई है? यदि उत्तर “नहीं” है, तो विरोध से पहले आत्ममंथन जरूरी है।

error: Content is protected !!