जयप्रकाश रावत (संदेश महल)
अवध की धरती अपने आप में भक्ति, परंपरा और संस्कृति की जीवंत गवाही देती है। यहाँ के मंदिर, गाँव-गाँव के देवस्थान और लोकगीत उस धार्मिकता को संजोए हुए हैं, जो हर त्यौहार को सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना का उत्सव बना देती है। जन्माष्टमी भी अवध में महज एक धार्मिक पर्व नहीं रहती, बल्कि यह पूरे समाज की आत्मा को जोड़ने वाला उत्सव बन जाती है।
भाद्रपद की कृष्ण पक्ष अष्टमी की रात, जब घड़ी का काँटा मध्यरात्रि की ओर बढ़ता है, तब अवध के गाँवों और नगरों में मंदिरों की घंटियाँ गूंजती हैं। छोटे-छोटे बालक जब नन्हे कान्हा बनकर झूले में बैठते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं वृंदावन का दृश्य साकार हो उठा हो।
अवध की जन्माष्टमी का सौंदर्य इसकी लोक परंपरा में छिपा है। यहाँ भजन-मंडलियों की स्वर लहरियाँ पूरी रात गूंजती हैं — “नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की” जैसे गीत गाँव-गाँव के कोने-कोने में श्रद्धा का रंग घोल देते हैं। महिलाएँ झूला सजाती हैं, घर-घर में माखन-मिश्री और पंजीरी का भोग लगता है।
बाराबंकी, सतरिख, देवा, फतेहपुर, सूरतगंज दरियाबाद से लेकर हर छोटे कस्बे और गाँव तक जन्माष्टमी की अपनी छटा है। कहीं झांकियाँ निकलती हैं, कहीं अखाड़ों की प्रस्तुतियाँ होती हैं, तो कहीं दही-हांडी की मटकी फोड़ने की परंपरा युवाओं के जोश को चरम पर पहुँचा देती है।
लेकिन अवध की जन्माष्टमी केवल उत्सव का प्रतीक नहीं है, यह समाज में सांझी संस्कृति और भाईचारे का सजीव उदाहरण भी है। यहाँ हिंदू-मुस्लिम एक साथ मिलकर मेले में शामिल होते हैं, बच्चे एक ही पंक्ति में बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं, और गाँव के बड़े-बुजुर्ग कृष्ण की बाल-लीलाओं की कथा सुनाकर नई पीढ़ी को धर्म और नैतिकता की सीख देते हैं।
आज जब समाज में विभाजन की दीवारें खड़ी की जा रही हैं, तब अवध की जन्माष्टमी यह सिखाती है कि धर्म केवल पूजा-पद्धति का नाम नहीं है, बल्कि प्रेम और सहयोग की परंपरा है। यही कारण है कि कृष्ण जन्माष्टमी इस क्षेत्र में आस्था के साथ-साथ सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुकी है।