एक बार मास्टर, ज़िंदगी भर मौज — कहावत की हकीकत जानिए

जयप्रकाश रावत
संदेश महल समाचार
“एक बार मास्टर बन जाओ, फिर ज़िंदगी भर मौज है!” यह बात अक्सर गांव-देहात की चौपालों, चाय की दुकानों और आम चर्चाओं में सुनने को मिल जाती है। खासकर सरकारी स्कूलों में तैनात शिक्षकों को लेकर यह धारणा और भी गहराई से समाज में बैठ गई है। पर जब जमीन पर जाकर सच्चाई देखी जाती है, तो यह कहावत महज़ एक भ्रम जैसी प्रतीत होती है।

जिले के विभिन्न प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों से जब संवाद किया गया, तो सामने आया कि एक शिक्षक का कार्य अब केवल शिक्षण तक सीमित नहीं है। शिक्षक पढ़ाई के साथ-साथ मिड-डे मील की देखरेख, नामांकन अभियान, आधार सत्यापन, कोविड टीकाकरण सूची, मतदाता जागरूकता, पोषण अभियान और ग्राम स्तर के सर्वेक्षण जैसे तमाम गैर-शैक्षिक कार्यों में भी नियमित रूप से लगाए जाते हैं। इतना ही नहीं, विद्यालय में संसाधनों की कमी के चलते कई बार शिक्षक को अपने निजी पैसों से ब्लैकबोर्ड, चॉक, टाट-पट्टी और पानी की व्यवस्था तक करनी पड़ती है।

एक शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि सुबह 7:30 बजे स्कूल पहुंचना होता है और कई बार प्रशिक्षण या विभागीय बैठकों के कारण देर शाम तक घर लौटना होता है। बीच में विभाग द्वारा पोर्टल पर रिपोर्टिंग, बच्चों के आंकड़ों की फीडिंग और पर्यवेक्षण संबंधी कार्य भी अलग से होते हैं। लेकिन आम जनमानस में आज भी यही समझा जाता है कि मास्टर साहब 2 बजे घर चले जाते हैं और उनके पास कोई काम नहीं होता।

शिक्षकों का कहना है कि सामाजिक सम्मान धीरे-धीरे घट रहा है। पहले जिस पेशे को सबसे गरिमामयी माना जाता था, आज वही पेशा तानों और भ्रांतियों का शिकार हो गया है। जब भी कोई त्रुटि होती है—चाहे वो मिड-डे मील की हो, भवन की हो या छात्र संख्या की—पहली उंगली शिक्षक पर ही उठती है।

हालांकि यह सच है कि शिक्षक की नौकरी में वेतन नियमित होता है, पेंशन की सुविधा है और सेवा शर्तें अन्य अस्थायी नौकरियों से बेहतर हैं, लेकिन इसे “ज़िंदगी भर की मौज” कहना उन शिक्षकों के परिश्रम और प्रतिबद्धता को नज़रअंदाज़ करना होगा जो सीमित संसाधनों में भी बच्चों का भविष्य गढ़ने का कार्य कर रहे हैं।

आज शिक्षक की भूमिका सिर्फ पढ़ाने तक सीमित नहीं रही। वह अब एक व्यवस्थापक, रिकॉर्ड कीपर, रसोई निरीक्षक, सर्वे प्रतिनिधि और कई बार तो सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका भी निभा रहा है। ऐसे में यह आवश्यक है कि समाज इस भूमिका को नई दृष्टि से देखे और “एक बार मास्टर, ज़िंदगी भर मौज” जैसे जुमलों की बजाय, शिक्षक के प्रति सम्मान और समझ का भाव अपनाए। क्योंकि शिक्षक के बिना समाज की बुनियाद मजबूत नहीं हो सकती।

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