जयप्रकाश रावत
बाराबंकी संदेश महल समाचार
नई शिक्षा नीति हो या प्रेरणा लक्ष्य, हर मंच पर यह दोहराया जाता है कि जनभागीदारी के बिना सरकारी विद्यालयों का कायाकल्प संभव नहीं। लेकिन जब जमीनी स्तर पर सरकारी स्कूलों की हालत देखी जाती है तो सबसे पहले सवाल उठता है — क्या विद्यालय प्रबंधन समिति यानी एसएमसी कहीं मौजूद भी है?
बड़ी उम्मीदों के साथ बनाई गई एसएमसी, जिसका उद्देश्य था समुदाय और विद्यालय के बीच सेतु बनाना, आज अधिकांश जगहों पर निष्क्रिय पड़ी है। मासिक बैठकें सिर्फ रजिस्टर की खानापूर्ति बनकर रह गई हैं। कई जगह सदस्य नाम भर के हैं, जिनसे न तो कोई संवाद होता है, न ही किसी योजना में उनकी राय ली जाती है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के तहत गठित यह समिति आज एक ऐसी संस्था बन चुकी है जिसे “हस्ताक्षर समिति” कह देना ज़्यादा सटीक होगा।
वर्तमान में सरकारी स्कूल अनेक चुनौतियों से जूझ रहे हैं — बच्चों की घटती उपस्थिति, आधारभूत संरचना की कमी, शिक्षकों की अनुपस्थिति, मिड-डे मील की गुणवत्ता, और डिजिटल शिक्षा के अभाव जैसी समस्याएँ आम हैं। इन सभी पर निगरानी रखने और समाधान की प्रक्रिया में स्थानीय लोगों की भागीदारी आवश्यक थी, परंतु SMC की चुप्पी और प्रशिक्षण के अभाव ने इसे एक खोखली संस्था बना दिया है।
कुछ जगहों पर तो सदस्यों को उनकी भूमिका तक नहीं पता। वहीं स्कूल के प्रधानाध्यापक भी इसे बोझ मानते हैं, न कि भागीदार।
वर्तमान परिस्थितियों में यह साफ दिखाई देता है कि यदि SMC को निष्क्रिय बनाए रखा गया, तो न केवल योजनाएं असफल होंगी, बल्कि शिक्षा व्यवस्था का जनाधार भी खोखला होता जाएगा। जब तक एसएमसी को अधिकार नहीं दिए जाएंगे, पारदर्शिता नहीं लाई जाएगी और सदस्य स्वाभिमान के साथ निर्णय लेने में सक्षम नहीं होंगे, तब तक यह सिर्फ कागज़ पर बनी एक औपचारिक समिति ही बनी रहेगी।
बावजूद इसके, कुछ विद्यालयों में जागरूक प्रधानाध्यापक और सक्रिय समुदाय मिलकर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। ये वे विद्यालय हैं जहाँ SMC बैठकों में वाजिब मुद्दों पर चर्चा होती है, शिक्षक-अभिभावक संवाद होता है, और बजट के उपयोग की समीक्षा की जाती है। ऐसे उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि समिति को जागरूकता और सम्मान मिले तो वह बच्चों के भविष्य की दिशा बदल सकती है।
अब सवाल यह नहीं रह गया कि एसएमसी क्या है, बल्कि यह है कि वह क्यों नहीं है। ज़रूरत है एक नए दृष्टिकोण की — जहाँ विद्यालय न केवल शिक्षा के केंद्र हों, बल्कि स्थानीय नेतृत्व, जवाबदेही और समाज की साझी जिम्मेदारी के प्रतीक बनें।