✍️ जयप्रकाश रावत
जयपुर की गलियों से निकलकर शहर की चकाचौंध तक पहुंचा रवि जब पहली बार स्नेहा से मिला था, तो उसे लगा था — यही है वो लड़की जिसके साथ ज़िंदगी बिताई जा सकती है।
स्नेहा — एक शांत, संस्कारी, भावनाओं से भरी हुई लड़की, जिसने अपना करियर छोड़कर घर को चुना था।
और रवि?
वो एक प्रतिभाशाली सॉफ्टवेयर इंजीनियर था — महत्वाकांक्षी, मेहनती, लेकिन रिश्तों के भावनात्मक समीकरणों से थोड़ा दूर।
शादी के शुरुआती साल जैसे रंगों से भरे थे।
कभी साथ पकोड़े बनते, तो कभी बारिश में चाय की चुस्कियों पर किस्से चलते।
पर जैसे-जैसे ज़िम्मेदारियां बढ़ीं, प्रेम ने अपनी जगह चुप्पियों को दे दी।
रवि देर रात तक लैपटॉप पर झुका रहता, और स्नेहा अकेले छत की ओर टकटकी लगाए आसमान देखती।
स्नेहा ने कई बार चाहा — रवि से बात करे, दिल की बातें कहे… पर रवि के पास “समय” नहीं था।
धीरे-धीरे वो बातें भी कम हो गईं, जो कभी दोनों की ज़िंदगी का संगीत थीं।
फिर एक दिन…
ऑफिस से निकलते ही रवि को उसके दोस्त आदित्य का फोन आया।
“रवि, फौरन ब्लू मून होटल आ। मैंने वहाँ तेरी वाइफ को एक आदमी के साथ देखा है।
फोन उसके हाथ से छूटते-छूटते बचा।
शरीर में बिजली सी दौड़ गई।
“स्नेहा…? होटल…? किसी और के साथ…?”
वो पागलों की तरह गाड़ी लेकर होटल की ओर भागा।
207 नंबर कमरा।
होटल के रिसेप्शन पर रजिस्टर में नाम था — स्नेहा शर्मा
कमरा नंबर: 207
हाथ काँप रहे थे, पर दरवाज़ा खोला…
भीतर का दृश्य वैसा नहीं था, जैसा उसने सोचा था।
कमरे के बीच टेबल पर दो चाय के कप रखे थे, सामने एक पुरुष बैठा था, और स्नेहा की आँखें झुकी हुई थीं।
रवि की आँखों में आंसू भर आए।
गुस्से और अविश्वास से वह फट पड़ा:
“तो यही है तेरा सच, स्नेहा?
स्नेहा चौंकी। चेहरा सफेद पड़ गया।
“रवि… पहले मेरी बात सुनो…
“क्या सुनूँ? मैं ऑफिस में खून-पसीना एक कर रहा हूं, और तुम होटल में बैठी हो किसी और के साथ?”
तभी सामने बैठा व्यक्ति संयम से बोला,
सर, मैं वैभव हूं… स्नेहा का कॉलेज फ्रेंड। सिर्फ इतना ही।
“तो फिर होटल में मिलने की क्या ज़रूरत थी?” रवि चीखा
फिर टूटा सन्नाटा…
स्नेहा ने अपनी नम आँखों से रवि की ओर देखा और बहुत धीमे स्वर में कहा —
रवि, क्या तुमने कभी देखा है, मैं दिनभर क्या करती हूं?
इस शहर में, इस घर में, और इस रिश्ते में… मैं बिल्कुल अकेली हूं।
जब तुम ऑफिस में होते हो, मैं दीवारों से बात करती हूं।
जब तुम घर आते हो, तो तुम्हारी आँखें फोन में होती हैं, और मेरा चेहरा तुम्हारे लिए बस आदत।
मैं थक गई हूं — इंतज़ार करते, समझाते, खुद को समझाते…”
रवि के अंदर कुछ दरकने लगा था।
उसे पहली बार एहसास हुआ कि उसने अपने जीवन की सबसे कीमती चीज़ को नज़रअंदाज़ किया — स्नेहा की मौजूदगी।
“मैंने वैभव को सिर्फ इसलिए बुलाया था कि किसी से दिल की बात कर सकूं। कोई तो हो जो मेरी बातें सुने, जज न करे।
लेकिन सबसे ज़्यादा चाहती तो मैं तुम्हें ही थी, रवि।
पर तुम… अब कभी ‘सुनते’ ही नहीं थे।
एक चुप माफी…
रवि चुप था। उसका सिर झुका हुआ था।
उसने स्नेहा का हाथ थामा और भर्राए गले से बोला —
“माफ कर दो मुझे, स्नेहा।
मैं तुम्हारे साथ था, लेकिन तुम्हारे पास नहीं था।
आज समझ आया कि ध्यान न देना, भी एक तरह की बेवफाई होती है।
क्या हम फिर से शुरू कर सकते हैं?
स्नेहा की आंखों में आंसू थे — पर वो आंसू ग़ुस्से के नहीं, उम्मीद के थे।
एक नई शुरुआत…
उस दिन के बाद रवि ने अपनी ज़िंदगी के नियम बदले।
अब रिश्ता, काम से ऊपर था।
अब वीकेंड्स सिर्फ स्नेहा के लिए थे।
अब वो साथ बैठते, बातें करते, लॉन्ग ड्राइव पर जाते, और… फिर से प्रेम करना सीख रहे थे — धीमे, गहराई से।
अंत में बस इतना —
रिश्ते अकसर बेवफाई से नहीं, अनदेखी से टूटते हैं।
जब एक साथी आपके पास बैठकर सिर्फ आपकी आँखों में जवाब ढूंढता है — और आप फोन में व्यस्त हों,
तो यकीन मानिए, आपकी चुप्पी किसी और के कानों में शोर बन सकती है।