लेखक: जयप्रकाश रावत, संपादक— संदेश महल
कोई उन्हें मास्टर साहब कहता है, कोई गुरुजी, कोई ‘सर’। लेकिन उनकी पहचान सिर्फ इन संबोधनों से नहीं होती — वह उस चुपचाप जलती बाती हैं, जो गाँव की अंधेरी राहों में भी उम्मीद की रोशनी बांटती है। वे सरकारी शिक्षक हैं — अपने कंधों पर जिम्मेदारियों का ऐसा पहाड़ उठाए हुए, जिसकी गूंज न शासन सुनता है, न समाज।
स्कूल के भीतर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी
सुबह की प्रार्थना से लेकर मिड-डे मील की थाली तक, हर कदम पर शिक्षक का हाथ है। वे केवल गणित, हिंदी, विज्ञान नहीं पढ़ाते — वे बच्चों को नाखून काटना सिखाते हैं, हाथ धोना बताते हैं, स्वेटर बांटते हैं, आधार अपडेट करवाते हैं, झाड़ू पकड़ते हैं और कभी-कभी बीएलओ बनकर वोटर लिस्ट भी जांचते हैं। शिक्षा का बोझ कभी उतना नहीं थकाता, जितना गैर-शैक्षणिक कार्यों की यह लंबी श्रृंखला।
एकांत के साथी: क्लासरूम के अकेले सिपाही
सरकारी स्कूलों में कई बार एक शिक्षक पूरे विद्यालय का भार उठाता है। कहीं एक शिक्षक पर चार कक्षाएं, तो कहीं आठ। परीक्षा का मूल्यांकन भी, रिपोर्ट अपलोड भी, मीटिंग अटेंडेंस भी — और जब समय बचे तो पढ़ाई भी। पूछिए उस शिक्षक से जो बीमार भी हो तो स्कूल पहुंचता है, क्योंकि उसके न आने पर पूरा विद्यालय ठहर जाता है।
सरकारी नौकरी है, आराम मिलती होगी— यह भ्रम है
समाज के एक हिस्से को लगता है कि शिक्षक की नौकरी ‘सरकारी आराम’ है। उन्हें नहीं पता कि एक महिला शिक्षक 30 किलोमीटर दूर के स्कूल में रोज़ पहुंचने के लिए सूरज से पहले उठती है। वह न सड़क की चिंता करती है, न बारिश की। ना ही कोई सुरक्षा है, न कोई शिकायत सुनने वाला। फिर भी वह बच्चों के लिए मौजूद रहती है — पूरी श्रद्धा और सादगी के साथ।
मूल्यांकन का पैमाना: केवल परीक्षा?
कभी-कभी लगता है, शिक्षक को केवल परीक्षा परिणामों से ही आँका जा रहा है। जैसे शिक्षा का मूल्य केवल अंकपत्र से तय होता हो। क्या यह जरूरी नहीं कि बच्चे को मानवीय मूल्य, आत्मविश्वास और संवेदना भी सिखाई जाए? और यदि शिक्षक यह करता है, तो क्या हमें उसका मूल्यांकन केवल ‘औसत प्रतिशत’ से करना चाहिए?
जब समाज भी पीछे हटता है…
स्कूल में कोई दरार हो — शिक्षक जिम्मेदार। मिड-डे मील में नमक कम — शिक्षक जिम्मेदार। किसी बच्चे ने स्कूल आना बंद कर दिया — शिक्षक लापरवाह। ऐसे में समाज का वह हिस्सा जो शिक्षक से उम्मीद तो रखता है, पर साथ नहीं देता, वह भी कहीं न कहीं इस संकट का भागीदार बन जाता है।
शिक्षक सिर्फ पढ़ाते नहीं — वे भविष्य गढ़ते हैं
कभी 5 साल के बच्चे को पहली बार पेंसिल पकड़ाना, कभी हकलाते हुए बच्चे को मंच पर बोलने के लिए तैयार करना — यह सिर्फ नौकरी नहीं, यह संस्कार निर्माण है। लेकिन जब वही शिक्षक समाज की उपेक्षा, अधिकारियों की अवहेलना और सिस्टम की जड़ता से लड़ते हैं — तब क्या हमें चुप रहना चाहिए?
अंतिम प्रश्न:
क्या हमने कभी यह सोचा है कि जो शिक्षक बच्चों को जीवन जीने की राह दिखाता है, उसके अपने जीवन में कितनी मुश्किलें हैं? वह सरकारी सिस्टम का हिस्सा होकर भी एक अकेला योद्धा है — जो न तो हड़ताल कर सकता है, न मंच पर चढ़ सकता है, लेकिन फिर भी प्रतिदिन चाक और डस्टर की लड़ाई में जीतता है।
समय है — शिक्षक को सिर्फ कर्मचारी न समझें, उसे समाज का शिल्पी मानें।