बस्ते के बोझ से दबे नौनिहाल नई शिक्षा नीति भी न बन सकी राहत की उम्मीद

जेपी रावत
बाराबंकी संदेश महल
नई शिक्षा नीति के तहत स्कूली बच्चों को बस्ते के बोझ से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य के बावजूद स्थिति में खास सुधार नहीं आया है। शहर की सड़कों पर सुबह स्कूल जाते समय और दोपहर को लौटते वक्त भारी बस्ते ढोते नन्हे-मुन्ने छात्र-छात्राएं देखे जा सकते हैं। शिक्षा को सरल और बोझरहित बनाने का दावा कागज़ों तक सीमित नजर आ रहा है।
शहर के एक निजी स्कूल में एलकेजी में पढ़ने वाले पांच वर्षीय छात्र का वजन 16 किलो है, जबकि उसका बैग तीन किलो से ज्यादा वजनी है। सातवीं कक्षा के एक छात्र का वजन 27 किलो और उसका बस्ता 10 किलो का है। वहीं, दसवीं की एक छात्रा का वजन 32 किलो और उसका बैग लगभग 12 किलो का पाया गया।
अभिभावकों की मानें तो बच्चों के बैग में लगभग हर विषय की किताबें और कॉपियाँ रखना मजबूरी बन गया है। अगर कोई किताब या कॉपी छूट जाए, तो स्कूल में बच्चों को फटकार मिलती है, जिसके चलते वे पूरा बस्ता साथ ले जाने को बाध्य हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी छात्र के बैग का वजन उसके शरीर के वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इससे अधिक वजन उनके शरीर पर नकारात्मक असर डाल सकता है, खासकर रीढ़ की हड्डी और कंधों पर।
हालांकि नई शिक्षा नीति में बस्ते का बोझ कम करने का स्पष्ट निर्देश है, लेकिन जमीनी स्तर पर इसका पालन होता नहीं दिख रहा है। स्कूलों में विषयवार टाइम टेबल और वैकल्पिक शिक्षण विधियों का उपयोग कर बच्चों का बोझ कम किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए स्कूल प्रबंधन की सक्रियता आवश्यक है।
शिक्षाविदों का मानना है कि यदि नीति को सही मायने में लागू किया जाए, तो बस्ते का बोझ घट सकता है। अन्यथा, यह बोझ बच्चों की सेहत और मनोविज्ञान पर दीर्घकालिक असर डालता रहेगा।

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