रामचरितमानस को शत् शत् नमन

अशोक अवस्थी- “संदेश महल”
रामचरितमानस को शत् शत् नमन

गोस्वामी जी ने स्वयं कहा है-

नाना पुराण निगमागम सम्मत यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्योऽपि
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ भाषा निबंधमति मंजुलमातनोति ॥

अर्थात – यह ग्रन्थ नाना पुराण,निगमागम, रामायण तथा कुछ अन्य ग्रन्थों से लेकर रचा गया है और तुलसी ने अपने अन्तः सुख के लिए रघुनाथ की गाथा कही है।

सामान्य धर्म, विशिष्ट धर्म तथा आपद्धर्म के विभिन्न रूपों की अवतारणा इसकी विशेषता है। पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, गुरुधर्म, शिष्यधर्म, भ्रातृधर्म, मित्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, शत्रुधर्म प्रभृति जागतिक सम्बन्धों के विश्लेषण के साथ ही साथ सेवक-सेव्य, पूजक-पूज्य, एवं आराधक-आर्राध्य के आचरणीय कर्तव्यों का सांगोपांग वर्णन इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है। इसीलिए स्त्री-पुरुष आवृद्ध-बाल-युवा निर्धन, धनी, शिक्षित, अशिक्षित, गृहस्थ, संन्यासी सभी इस ग्रन्थ रत्न का आदरपूर्वक परायण करते हैं।

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना​। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

इसी प्रकार, राजधर्म पर कहते हैं-

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥

विद्या विनय धर्म के प्रति श्रद्धा साधु और सज्जनों का सत्कार विनम्रता वाकपटुता और नीति पर चलना भगवान राम का स्वाभाविक गुण है जिसका गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में पग-पग पर चित्रण किया है
वन गमन के समय वनों में रहने वाले बनवासी मार्ग के ग्रामवासी तथा प्रसिद्ध संत ऋषि और ज्ञानियों के आश्रम में पहुंच कर उनसे ज्ञान नीति तथा भारतीय संस्कृति को आत्मसात करते हुए अत्याचारियों का विनाश करने की लीलाएं प्रमुखता से रेखांकित की गई है यह राम का स्वाभाविक गुण अयोध्या के सिंहासन पर बैठने के बाद भी पूर्ववत बना रहा वही सरलता ऋषि मुनियों के प्रति श्रद्धा गोस्वामी जी कहते हैं सिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद चारों भाई हनुमान जी के साथ उपवन की ओर आए तो उसी समय शुभ अवसर पाकर सनकादि मुनि आए जो तेज केपुंज सुंदर शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवली रहते हैं देखने में यह बालक लगते हैं परंतु बहुत समय के हैं मानो चारों वेद बाल रूप धारण किए हूं वह समदर्शी और भेद रहित हैं दिशाएं मानो उनके वस्त्र है रघुनाथ जी का श्रवण ही उनका व्यसनहै। शिव जी कहते हैं हे भवानी सनकादि मुनि अगस्त्य ऋषि के आश्रम से आए थे जहां पर बहुत प्रकार से राम चर्चा सुनकर ज्ञान प्राप्त होता है जैसे चंदन की लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है। सनकादिक मुनियों को आते देखकर प्रभु ने हर्षित होकर दंडवत प्रणाम किया और कुशल पूछी उनके बैठने के लिए प्रभु ने अपना पीतांबर बिछा दिया मुनिगण राम जी की अतुलनीय छवि देख कर मगन हो गए मन को ना रोक सके वह जन्म मृत्यु से छुड़ाने वाले श्याम शरीर कमल नयन सुंदरता के धाम राम को टकटकी लगाए हैं और प्रभु हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं। प्रभु राम कहते हैं हे मुनि गणों आज मैं धन्य हो गया आपके दर्शनों से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं बड़े ही भाग्य से सत्संग मिलता है जिससे बिना ही परिश्रम जन्म मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है मुनि कहते हैं हे निर्गुण आपकी जय हो आप अंत रहित विकार रहित पाप रहित अद्वितीय और करुणामय है आपकी जय हो आप अजन्मा उपमा रहित शोभा की खान है आप ज्ञान के भंडार मान रहित दूसरों को मान देने वाले तथा वेद पुराण आपका पावन यश गाते हैं

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