स्वतंत्रता दिवस के पावन पर्व पर पेश है
मैनपुरी से संदेश महल ब्यूरो रिपोर्ट प्रवीन कुमार के साथ।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में मैनपुरी षडयंत्र के नाम से दर्ज यह योजना अगर फलीभूत हुई होती तो ब्रिटेन का शाही सिंहासन डगमगा गया होता। क्रांतिकारियों के संगठन मातृवेदी ने 1918 में अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ने के लिए एक साथ 12 जिलों के कलेक्टर और एसपी को मौत के घाट उतारने की योजना बनाई थी,लेकिन ऐन वक्त पर दलपत सिंह की मुखबिरी ने न सिर्फ योजना पर पानी फेरा, बल्कि आजादी के 11 दीवानों को असंख्य अमानवीय यातनाओं से भरी
कालकोठरी में धकेल दिया।
इस योजना के पीछे मंशा थी कि इंग्लैंड को भारतीयों के गुस्से का अहसास कराया जाए और उन्हें हिंदुस्तान छोड़ने के लिए सोचने पर विवश किया जाए। योजना कामयाब होने से पहले मुखबिरी की भेंट चढ़ गई। फिर यातनाओं का दौर शुरू हुआ। मैनपुरी के जसराना तहसील के कुढ़ी गांव (अब फिरोजाबाद जिला) में जन्मे गोपीनाथ, मैनपुरी के चंदीकरा गांव के सिद्धगोपाल चतुर्वेदी, बेवर के कढ़ोरी लाल, कानपुर के रोशनाई गांव के फतेह सिंह आदि साथियों के साथ खुद को दी जा रही यातनाओं का जिक्रऔरैया के मुकुंदी लाल गुप्ता ने पत्र में किया था। बेड़ियों में जकड़े उन लोगों को हथकड़ियों से एक साथ बांध दिया जाता था। रात 11 बजे गिनती होती थी। उसी समय सफाईकर्मी कनस्तरों में पेशाब आदि करा ले जाता था। इसके बाद अगर पेशाब लगे तो तसलों में करना पड़ता था। सुबह इन्हीं तसलों में खाना परोसा जाता था। इसके बाद भी ये शूरवीर टूटे नहीं।
गुमनाम रहे इन बलिदानियों को नमन मैनपुरी केस की सजा काटकर निकले मुकुंदीलाल भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए और सात साल नौ माह के लिए फिर कैद कर लिए गए। सिद्धगोपाल चतुर्वेदी पांच साल कठोर कारावास में रहे। गोपीनाथ सात वर्ष सश्रम कारावास से छूटने के बाद निरंतर क्रांति की च्वाला भड़काने में जुटे रहे। मैनपुरी केस में आलीपुर पट्टी के दम्मीलाल पांडेय ने सात साल की नारकीय सजा भोगी तो प्रभाकर प्रभाकर पांडेय पांच साल कैद में रहे। इसके बाद भी दोनों क्रांति पथ पर चलते ही रहे। कानपुर के रोशनाई गांव निवासी फतेह सिंह इस केस में गिरफ्तार किए गए लोगों में सबसे कम उम्र 20 वर्ष के थे। इन्हें भी पांच साल की सश्रम सजा हुई थी।
मैनपुरी जिले का इतिहास वीर गाथाओं से भरा पड़ा है। यहां की माटी में जन्मे लाल हमेशा गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए हर सम्भव कोशिश करते रहे। ब्रिटिश राज में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यहां की माटी वीर सपूतों के खून से लाल हुई है। पृथ्वीराज चौहान के बाद उनके वंश के वीर देशभर में बिखर गए। उन्हीं में से एक वीर देवब्रह्मा ने 1193 ई. में मैनपुरी में सर्वप्रथम चौहान वंश की स्थापना की। 1857 में जब स्वतंत्रता आंदोलन की आग धधकी तो महाराजा तेजसिंह की अगुवाई में मैनपुरी में भी क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया। तेज सिंह वीरता से लड़े। और अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए। घर के भेदी की वजह से उन्हें भले ही अंग्रेजों को खदेड़ने में सफलता न मिली हो लेकिन इसमें उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। तेजसिंह ने जीवन भर मैनपुरी की धाक पूरी दुनिया में जमाए रखी।
इतिहास गवाह है कि 10 मई 1857 को मेरठ से स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत हुई, जिसकी आग की लपटें मैनपुरी भी पहुंची। इस आंदोलन से पांच साल पहले ही महाराजा तेजसिंह को मैनपुरी की सत्ता हासिल हुई थी। उन्हें जैसे-जैसे अंग्रेजों के जुल्म की कहानी सुनने को मिली, उनकी रगों में दौड़ रहा खून अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए खौल उठा और 30 जून 1857 को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध तेजसिंह ने आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने मैनपुरी के स्वतंत्र राज्य की घोषणा करते हुए ऐलान कर दिया। फिर क्या था राजा के ऐलान ने आग में घी का काम किया और उसी दिन तेजसिंह की अगुवाई में दर्जनों अंग्रेज अधिकारी मौत के घाट उतार दिए गए। सरकारी खजाना लूट लिया गया। अंग्रेजों की सम्पत्ति पर तेजसिंह की सेना ने कब्जा कर लिया। तेजसिंह ने तत्कालीन जिलाधिकारी पावर को प्राण की भीख मांगने पर छोड़ दिया और मैनपुरी तेजसिंह की अगुवाई में क्रांतिकारियों की कर्मस्थली बन गयी। मगर स्वतंत्र राज्य अंग्रेजों को बर्दाश्त नहीं था। फलस्वरूप 27 दिसम्बर 1857 को अंग्रेजों ने मैनपुरी पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में तेजसिंह के 250 सैनिक भारत माता की चरणों में अर्पित हो गए। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन में तेजसिंह की भूमिका ने क्रांतिकारियों को एक जज्बा प्रदान कर दिया। हालांकि उनके चाचा राव भवानी सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध तेजसिंह का साथ नहीं दिया। फलस्वरूप तेजसिंह अंग्रेजों से लड़ते हुए गिरफ्तार हो गए और अंग्रेजों ने उन्हें बनारस जेल भेज दिया। इसके बाद भवानी सिंह को मैनपुरी का राजा बना दिया गया। 1897 में बनारस जेल में ही तेजसिंह की मौत हो गयी।