दर्शनीय स्थलों के पर्यटन में आकर्षक लखीमपुर-खीरी

केतकी पुष्प

मैं मोहम्मदी हूं,केतकी का फूल मेरे आंचल में खिलता है। महाभारत काल के पुरातन इतिहास की मैं साक्षी हूं.. मैं मोहम्मदी हूं। मुझे मेरी खोई हुई पहचान चाहिए। ब्रिटिश शासन काल में मुझे जो जिले का दर्जा मिला हुआ था,मुझे वापस चाहिए। मैं मोहम्मदी हूं?

जयप्रकाश रावत
संदेश महल समाचार
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नाम उत्पति और इतिहास

झलक लखीमपुर-खीरी

लखीमपुर-खीरी को “लक्ष्मीपुर” के नाम से जाना जाता था। पुराने समय में यह खर के वृक्षों से घिरा हुआ था। अत: खीरी नाम खर वृक्षों का ही प्रतीक है। यह जिला उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा जिला हैं।
लखीमपुर खीरी का प्राचीन इतिहास परंपराएं इस स्थान को हस्तिनापुर की चंद्र जाति के शासन के तहत शामिल होने की ओर इशारा करती हैं,कई जगह महाभारत में एपिसोड से जुड़ी हैं। कई गाँवों में प्राचीन टीले हैं जिनमें मूर्तिकला के टुकड़े पाए गए हैं, बाल्मीकर-बरखर और खैरलागढ़ सबसे उल्लेखनीय हैं। एक पत्थर का घोड़ा खैराबाद के पास पाया गया था, जो चौथी सदीं में स्थित समुंद्र गुप्त के शिलालेख को दर्शाता है। मगध के राजा समुंद्र गुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया जिसमें एक घोड़े को पूरे देश में स्वतंत्र रूप से घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है, ताकि राजा की शक्ति का प्रदर्शन किया जा सके और उनकी विजय के महत्व को रेखांकित किया जा सके। घोड़े की पत्थर की प्रतिकृति,अब लखनऊ संग्रहालय में है।

मध्यकालीन इतिहास
उत्तरी भाग राजपूतों द्वारा 10 वीं शताब्दी में रखा गया था। मुस्लिम शासन धीरे-धीरे इस दुर्ललभ और दुर्गम क्षेत्र में फैल गया। 14 वीं शताब्दी में उत्तरी सीमांत के साथ कई किलों का निर्माण किया गया था, ताकि नेपाल से हमलों की घटनाओं को रोका जा सके।

आधुनिक इतिहास
17 वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के दौरान, अकबर के शासन में जिले ने अवध के सुबाह में खैराबाद के सरकार का हिस्सा बनाया था। अवध के नवाबों के तहत 17 वीं सदी के बाद का इतिहास, व्यक्तिगत शासक परिवारों के उत्थान और पतन का है। वर्ष 1801 में, जब रोहिलखंड को अंग्रेजों को सौंप दिया गया था, तब इस जिले का कुछ हिस्सा कब्जे में शामिल था,लेकिन 1814-1816 के एंग्लो-नेपाली युद्ध के बाद इसे अवध में बहाल कर दिया गया था।1856 में अवध के उद्गम पर वर्तमान क्षेत्र के पश्चिम को मोहम्मदी और पूर्व में मल्लानपुर नामक जिले में बनाया गया था, जिसमें सीतापुर का हिस्सा भी शामिल था। 1857 के भारतीय विद्रोह में मोहम्मदी उत्तरी अवध में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख केंद्रों में से एक बन गया। शाहजहाँपुर से शरणार्थी 2 जून 1857 को मोहम्मदी पहुँचे, और दो दिन बाद मोहम्मदी को छोड़ दिया गया, अधिकांश ब्रिटिश पार्टी को सीतापुर के रास्ते में गोली मार दी गई, और बचे लोगों की मृत्यु हो गई या लखनऊ में बाद में उनकी हत्या कर दी गई। मल्लनपुर में ब्रिटिश अधिकारी नेपाल भाग गए, जहाँ बाद में उनमें से अधिकांश की मृत्यु हो गई। अक्टूबर 1858 तक, ब्रिटिश अधिकारियों ने जिले पर नियंत्रण पाने के लिए कोई अन्य प्रयास नहीं किया। 1858 के अंत तक ब्रिटिश अधिकारियों ने नियंत्रण हासिल कर लिया और तब बनने वाले एकल जिले के मुख्यालय को शीघ्र ही लखीमपुर में स्थानांतरित कर दिया गया।

मैं मोहम्मदी हूं,

मैं मोहम्मदी हूं,केतकी का फूल मेरे आंचल में खिलता है। महाभारत काल के पुरातन इतिहास की मैं साक्षी हूं.. मैं मोहम्मदी हूं। मुझे मेरी खोई हुई पहचान चाहिए। ब्रिटिश शासन काल में मुझे जो जिले का दर्जा मिला हुआ था,मुझे वापस चाहिए।


जिला मुख्यालय से तकरीबन 60 किमी दूर शाहजहांपुर व हरदोई के बॉर्डर से लगी मोहम्मदी तहसील की ये टीस अब वहां के निवासियों की आवाज बनकर एक अभियान का रूप ले चुकी है।


तकरीबन दस लाख की आबादी वाला मोहम्मदी तहसील क्षेत्र ब्रिटिश हुकूमत के दौरान जिला था, पर बाद में उससे ये दर्जा छिन गया। इसके बाद से ही समय-समय पर मोहम्मदी को फिर से जिला बनाए जाने की मांग उठती रही। पिछले दो-तीन साल से इस मांग ने जोर पकड़ लिया है। विधानसभा चुनाव 2017 के दौरान मोहम्मदी के मेला मैदान में विधायक लोकेंद्र प्रताप सिंह के समर्थन में सभा करने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आए थे। उन्होंने प्रदेश में भाजपा सरकार बनने पर मोहम्मदी को पुन: जिले का दर्जा देने सहित इसका नाम बदलने का भरोसा दिलाया था। इससे पहले भी मोहम्मदी को जिला बनाने का मामला चुनावी मुद्दा बनता रहा है लेकिन, सरकार का गठन होने के बाद इस पर ध्यान नहीं दिया गया।

पर्यटन

दुधवा राष्ट्रीय उद्यान
मोहाना और सुहेली नदी के बीच 75 वर्ग किलोमीटर के वन क्षेत्र में आरक्षित वन घोषित किया गया था।दुधवा नेशनल पार्क को उत्तराखंड के राज्य के प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान के रूप में जाना जाता है।यह शारदा नदी के तट पर स्थित है और आसपास के आरक्षित वनों के साल वन से घिरा हुआ है।
१ फ़रवरी सन १९७७ ईस्वी को दुधवा के जंगलों को राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। सन १९८७-८८ ईस्वी में किशनपुर वन्य जीव विहार को दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में शामिल कर लिया गया तथा इसे बाघ संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना के समय यहां बाघ, तेंदुए, गैण्डा, हाथी, बारहसिंगा, चीतल, पाढ़ा, कांकड़, कृष्ण मृग, चौसिंगा, सांभर, नीलगाय, वाइल्ड डाग, भेड़िया, लकड़बग्घा, सियार, लोमड़ी, हिस्पिड हेयर, रैटेल, ब्लैक नेक्ड स्टार्क, वूली नेक्ड स्टार्क, ओपेन बिल्ड स्टार्क, पैन्टेड स्टार्क, बेन्गाल फ़्लोरिकन, पार्क्युपाइन, फ़्लाइंग स्क्वैरल के अतिरिक्त पक्षियों, सरीसृपों, उभयचर, मछलियाँ व अर्थोपोड्स की लाखों प्रजातियां निवास करती थी। कभी जंगली भैसें भी यहां रहते थे जो कि मानव आबादी के दखल से धीरे-धीरे विलुप्त हो गये।

इन भैसों की कभी मौंजूदगी थी इसका प्रमाण वन क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों पालतू मवेशियों के सींघ व माथा देख कर लगा सकते है कि इनमें अपने पूर्वजों का डी०एन०ए० वहीं लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। मगरमच्छ व घड़ियाल भी आप को सुहेली जो जीवन रेखा है इस वन की व शारदा और घाघरा जैसी विशाल नदियों में दिखाई दे जायेगें। गैन्गेटिक डाल्फिन भी अपना जीवन चक्र इन्ही जंगलॊ से गुजरनें वाली जलधाराओं में पूरा करती है। इनकी मौजूदगी और आक्सीजन के लिए उछल कर जल से ऊपर आने का मंजर रोमांचित कर देता है।

गोला – गोकरनाथ (छोेटी काशी)

गोला गोकरन नाथ को छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। किंवदंती है भगवान शिव ने रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था। रावण ने शिव से प्रार्थना की साथ लंका चले और हमेशा के लिए लंका में रहें।शिव रावण की इस बात से राजी हो गए। किंतु शर्त थी कि वह लंका को छोड़कर अन्य किसी और स्थान पर नहीं रहेंगे। रावण इस बात के लिए तैयार हो गया और भगवान शिव और रावण ने लंका के लिए अपनी यात्रा आरंभ की थी। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग पर रावण के अगूठे का निशान वर्तमान समय में भी मौजूद है।

लिलौटी नाथ मंदिर

यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। शारदा नगर मार्ग पर स्थित लिलौटी नाथ लखीमपुर से नौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।मंदिर में स्थित शिवलिंग की स्थापना महाभारत काल के दौरान द्रोणाचार्य के पुत्र अश्‍वशथामा ने की थी। कुछ समय के पश्चात् यहां के पुराने राजा मेहवा ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। मंदिर में स्थित शिवलिंग अत्यंत अद्भुत है। क्योंकि प्रतिदिन शिवलिंग के कई बार रंग बदलते हैं।
लोगों का मानना है कि अश्‍वशथामा अमर है और प्रतिदिन मंदिर का द्वार खुलने से पहले उसमे भगवान शिव पर पूजा अर्चना कर जाते है।

मेंढक मंदिर

लखीमपुर से १२ किलोमीटर की दूरी पर ऑयल शहर फ्रॉग मंदिर के लिए काफी प्रसिद्ध है। इस मंदिर का निर्माण १८७० ई. में करवाया गया था। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह मंदिर मेढ़क के आकार में बना हुआ है। मंदिर में दो प्रवेश द्वार है। जिसका प्रमुख द्वार पूर्व दिशा की और दूसरा दक्षिण दिशा की ओर खुलता है।मंदिर के ऊपर लगा हुआ छत्र स्वर्ण से निर्मित है। जिसमें नटराज जी की नृत्य करती मूर्ति चक्र के अन्दर मंदिर के शीर्ष पर विद्यमान है। जोकि सूर्य की दिशा के अनुसार घूर्णन करता है। जोकि विस्मय कारी है।

मैगलगंज

मैगलगंज लखीमपुर जिले का एक कस्बा है। ज
लखीमपुर से करीब 54 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह नेशनल हाईवे 24 पर स्थित है।यहां के गुलाब जामुन प्रदेश भर में मशहूर है।

एक तरफ पूर्वी भारत के दो राज्यों, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में रसगुल्ले को अपना बताने को लेकर खींचतान इतनी बढ़ गई है कि ओडिशा को रसगुल्ला अपना साबित करने के लिए कमेटी गठित करनी पड़ी है, वहीँ दूसरी ओर मैगलगंज गुलाबजामुन का निर्विवाद गढ़ बना हुआ है।

विचारों तक में मिलावट वाले इस दौर में यह गुलाबजामुन भी पीछे नहीं हैं फर्क बस इतना है कि इसे बनाने में होने वाली मिलावट भी दो शुद्ध चीज़ों की ही होती है, एक गाय के दूध से बना खोया और दूसरा भैंस के दूध से बना खोया। इन दोनों अलग-अलग प्रकृति के खोया का मिक्सचर ही मैगलगंज के गुलाबजामुन की खासियत भी है इसीलिए इनमें मुंह में डालते ही आईस्क्रीम की तरह घुल जाने का गुण भी आ पाता है जो इन्हें और कहीं मिलने वाले गुलाबजामुन से अलग बनाता है। यहां के गुलाबजामुन की एक और खास बात है, मैगलगंज में इन्हें मिट्टी को पकाकर बनाई गई हांडियों में भरकर दिया जाता है। मतलब यह कि एक तो पहले ही गज़ब के स्वादिष्ट हैं दूसरा उसमें मिट्टी का सौंधापन मिलाकर उन्हें स्वाद की कातिल फैक्ट्री बना दिया

पारसनाथ प्रसिद्ध मंदिर

मैगलगंज के दक्षिण में गोमती नदी के तट पर महाभारत काल का मंदिर है इस मंदिर में 6 शिवलिंग है 5 शिवलिंग की पूजा पांच पांडव करने आते हैं और एक शिवलिंग की पूजा अश्वत्थामा करते हैं जो कि द्रोणाचार्य के पुत्र हैं गोमती नदी दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहती है यह शुभ माना जाता है और मंदिर के पश्चिम सिद्ध बाबा का स्थान है मंदिर के दक्षिण कुछ टूटी हुई मूर्तियां रखी है जो यहां के पूर्वजों ने बताया है मूर्तियां मोहम्मद गोरी ने तोड़ी है जब उसने मंदिर पर आक्रमण किया तो यहां सांप और बिच्छू उसकी सेना लोहा लिया और उसकी सेना को खत्म कर दिया
मढ़ियाघाट स्थित महाभारत कालीन प्राचीन पारसनाथ शिव मंदिर में अश्वत्थामा पूजा करने आते हैं। ऐसी यहां के लोगों की मान्यता है। लोग बताते हैं कि रात में मंदिर के कपाट बंद होने के बाद सुबह जब खोले जाते हैं तब जल, दूध, चंदन, अक्षत, बेलपत्र, फूल आदि से शिवलिंग पूजित मिलता है लेकिन आज तक किसी ने भी रात में पूजा होते नहीं देखी। सावन में यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है। दूरदराज से लोग यहां कांवड़ लेकर जलाभिषेक के लिए आते हैं।
उत्तरवाहिनी गोमती नदी के तट पर मढ़ियाघाट स्थित पारसनाथ शिव मंदिर के बारे में बताया जाता है कि औरंगजेब की सेना ने जब इस मंदिर पर आक्रमण किया तो मंदिर से निकले सांप बिच्छुओं ने भी उनपर हमला कर दिया। इससे मुगल सेना को भागना पड़ा। खंडित प्रतिमाएं आज भी मंदिर के बाहर बरामदे में रखी हुई हैं। यह स्थान ऋषि पारासर की तपोस्थली माना जाता है। मंदिर की विशेषता यह भी है कि यहां पांच शिवलिंग एक ही अरघे में स्थापित हैं।
इस स्थान पर मढ़ियाघाट आश्रम, संस्कृत महाविद्यालय, गौशाला, भगवान परशुराम का मंदिर समेत छोटे बड़े दर्जनों मंदिर हैं। शिव मंदिर के बाद जंगल में सिद्धबाबा का स्थान है, वहां जिसने जो भी मनौती मांगी वह पूरी हुई। ऐसा श्रद्धालुओं में मान्यता है। इस स्थान का महत्व इसलिए ज्यादा है कि भारतवर्ष में पूरब की दिशा से आकर कोई नदी का बहाव उत्तर दिशा में नहीं है लेकिन यहां गोमती नदी का बहाव पूरब से आकर उत्तर की दिशा में है। इसलिए इसका नाम उत्तरवाहिनी गोमती नदी है।
प्रत्येक माह की अमावस को यहां मेला लगता है। यहां के पुजारी बताते हैं कि मंदिर के पट बंद होने के बाद सुबह जब खोला जाता है तो शिवलिंग की पूजा हुई मिलती है। ऐसा माना जाता है कि आज भी अश्वत्थामा यहां आकर पूजा करते हैं। मंदिर के आस-पास बनी इमारतों में 1918 की ईटें लगी हैं। इससे यह अंदाजा लगाया जाता है मंदिर का जीर्णोद्धार 100 साल पहले कराया गया। इसका इतिहास महाभारत काल का है।
मैगलगंज। औरंगाबाद कस्बे की रामलीला का 156 साल पुराना इतिहास है। यहां पहले राजा प्रतापगढ़ की रियासत थी। अंग्रेजों ने रामलीला में बाधा डालने का प्रयास किया, लेकिन सामुदायिक सौहार्द से वह अपनी कोशिश में सफल नहीं हो सके। गांव के ही कलाकारों द्वारा रामलीला के किरदार निभाए जाते हैं।
1857 में औरंगाबाद के मक्खन शाह, झाऊ शाह, मखनू पाठक, जगन्नाथ तिवारी एवं प्रमोद अवस्थी आदि ने इलाहाबाद और काशी की रामलीला देखने के बाद यहां श्री रामलीला का शुभारंभ किया। मक्खन शाह हरदोई जनपद के शाहाबाद के मूल निवासी थे। वह 1800 ई में यहां आकर बसे थे। मक्खन शाह की मृत्यु के बाद छोटकाई, महेश शाह आदि ने रामलीला की कमान संभाली। इसके बाद कायस्थ परिवार के काटा राय, रामलाल, प्यारेलाल, बांकेलाल, लाल बहादुर, डोरीलाल लोहार आदि ने रामलीला करवाना शुरू कर दिया। कुछ वर्षों के बाद इस रामलीला में काफी संघर्ष होने लगा, क्योंकि अंग्रेज नहीं चाहते थे। यह रामलीला हो इस संघर्ष के दौरान घासीराम त्रिपाठी, शिवसागर अवस्थी, गंगाराम मिश्रा, बेनी प्रसाद मिश्रा, लक्ष्मण मिश्रा को जेल जाना पड़ा, जिनको बैरिस्टर डगलस फोर्ड की मदद से जेल से रिहा कराया गया। हालांकि अंग्रेज नहीं चाहते थे कि रामलीला हो इसलिए तीन साल तक रामलीला मेला नहीं हुआ। इसके बाद औरंगाबाद के नवाब तसद्दुक हुसैन ने पुन: मेला की कमेटी बनवाई। 36 वर्षों के बाद गद्दीधर नन्हू किन्नर की मौत के बाद उनके चेले पुत्तन किन्नर ने मेले में सहभागिता निभाई। इस अवधि में किन्नर ही रामलीला के अगुवा थे। 1968 में मेला ग्राउंड को लेकर विवाद हो गया। फिर मेला मैदान की रजिस्ट्री और सुलह के बाद हिंदू और ब्राह्मण समाज के लोग मिलकर रामलीला के किरदार निभाते हैं । हर साल दशहरा में रामलीला होती है। रावण वध की लीला के साथ ही यहां का मेला समाप्त होता है।

देवकाली शिव मंदिर

देवकाली शिव मंदिर एक ऐतिहासिक मंदिर है। यह मंदिर लखीमपुर जिले से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भगवत गीता के अनुसार राजा परीक्षित ने अपने बेटे के जन्म पर नाग यज्ञ का आयोजन किया था। सभी सांप यज्ञ मंत्र की शक्ति से उस हवन कुंड में कूद पड़े। इस यज्ञ के पश्चात् उस क्षेत्र में कभी कोई सांप नहीं पाया गया। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर की पवित्र धरती इस जगह पर किसी सांप को यहां आने नहीं देती है। इस मंदिर का नाम भगवान ब्रह्मा की पुत्री देवकाली के नाम पर रखा गया है। क्योंकि उन्होंने इस स्थान पर कड़ी तपस्या की थी।

टेडे़नाथ मंदिर

भोलेनाथ मंदिर गोमती नदी के किनारे बना है यहां श्रावण मास में मेला लगता है यहां पर लगभग हर समय सृद्धालुओ द्वारा रामचरितमानस पाठ कराये जाते हैं मनोकामना पूर्ण करने वाले सृद्धालुओ ने यहां कई धर्मशाला बनवाये हैं।

सूरत भवन महल

सूरत भवन पैलेस तराई क्षेत्र स्थित खूबसूरत महलों में से एक है। इस महल वास्तुकला काफी खूबसूरत है। यह महल लगभग नौ एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है। बिना अनुमति के यहां प्रवेश नहीं किया जा सकता है।

गुरूद्वारा कौड़ियाला घाट साहिब

यह गुरूद्वारा खीरी जिले के बाबापुर में स्थित है। गुरूद्वारा कौड़ियाला घाट साहिब घाघरा नदी के तट पर स्थित है। माना जाता है कि इस स्थान पर सिखों के प्रथम गुरू, गुरू नानक जी ने १५१४ ई. में शिविर लगाया था व गुरूवाणी के प्रभाव से एक कुष्ठ रोगी को रोग से मुक्त किया था। इस पुराने गुरूद्वारे में एक विशाल कमरा और पवित्र कुण्ड भी स्थित है। पवित्र कुंड में स्नान करते है कहा जाता है कि उस कुंड में स्नान करने मात्र से चर्म रोगों में फायदा हो जाता है। लोगों को फायदा होने पे नमक और झाड़ू चढ़ाया जाता है।

सरस्वती भवन,आगा साहब की कोठी

कुछ ऐसे पुराने परिवार हैं जिनका शहर के विकास में अहम योगदान रहा है। इनमें से आगा साहब के परिवार की प्रतिष्ठा दूर-दूर तक है। इस परिवार की चार पीढ़ियां समाज सेवा में लगी रही हैं। एक तरफ जिले के शैक्षिक विकास में अपना योगदान दिया तो शहर को सजाने संवारने में बड़ी भूमिका निभाई है।


शहर के मोहल्ला महराजनगर में स्थित आगा साहब की कोठी की चमक आज भी बरकरार है। आजादी के पहले लखीमपुर नगर पालिका के अध्यक्ष रहे राय बहादुर सरस्वती प्रसाद सक्सेना क्षेत्र के जाने माने अधिवक्ता थे। सरकार ने उन्हें गवर्नमेंट प्लीडर नियुक्त किया था। उन्होंने काफी लंबे अरसे तक इस पद पर रहकर अपनी सेवाएं दीं। वह जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष भी रहे। विलोबी मेमोरियल हाल की स्थापना में भी उनका बड़ा योगदान रहा।
राय बहादुर सरस्वती प्रसाद सक्सेना के पुत्र लक्ष्मी नरायन सक्सेना ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी लक्ष्मी नरायन सक्सेना आगा साहब के नाम से प्रसिद्ध हुए। आजादी के बाद वर्ष 1951 में हुए नगर पालिका के चुनाव में वह पहली बार नगर पालिका अध्यक्ष चुने गए। इसके बाद वह अपने जीवन काल में पांच बार नगर पालिका अध्यक्ष बने। नगर पालिका अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने जिस गुणवत्ता के साथ हीरालाल धर्मशाला चौराहे से हमदर्द दवाखाना चौराहे तक मेन रोड का निर्माण कराया, उसकी तारीफ आज तक होती है।
आगा साहब अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित और काबिल क्रिमनल लॉयर माने जाते थे। वह वाईडी कॉलेज प्रबंध समिति के आजीवन सचिव रहे। इसके अलावा सिंगाही स्टेट के तीनों कॉलेजों के प्रबंधक भी रहे। उनका निधन 21 मई 1988 को हुआ।
लक्ष्मी नरायन आगा के पुत्र वीरेंद्र कुमार सक्सेना भी अपने समय के जाने माने अधिवक्ता थे। राजनीति से दूर रहकर वीरेंद्र कुमार सक्सेना उर्फ बीरू बाबू लंबे अरसे तक डीजीसी क्रिमिनल रहे। युवराज दत्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय प्रबंध समिति के सदस्य और सिंगाही स्टेट के तीनों कॉलेजों के प्रबंधक रहते हुए शैक्षिक विकास में योगदान दिया। आगा परिवार की मौजूदा पीढ़ी में डॉ. अजय कुमार आगा भी कई सामाजिक संगठनों से जुड़कर समाज सेवा का कार्य कर रहे हैं। पेशे से शिक्षक डॉ. अजय कुमार आगा युवराजदत्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय में जंतु विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष हैं। वह पं. दीनदयाल उपाध्याय सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज (यूपी बोर्ड) के कोषाध्यक्ष और इसी कॉलेज के सीबीएसई से संबद्ध कॉलेज में शिक्षाविद के रूप में कार्यकारिणी सदस्य हैं। डॉ. आगा रोटरी इंटरनेशनल के गवर्नर और विलोबी स्मारक ट्रस्ट के सचिव हैं।
आगा परिवार का पुश्तैनी घर आगा साहब की कोठी के नाम से विख्यात है। इसका निर्माण राय बहादुर सरस्वती प्रसाद सक्सेना ने कराया था। दो मंजिला इस भवन का असल नाम सरस्वती भवन है। दीवारों और स्तंभों की खूबसूरती, कमरों में लगे कीमती झाड़ फानूस, वुड वर्क सब कुछ बेहद शानदार है। इस भवन में 40 बड़े-बड़े कमरे हैं। जिनमें रखा फर्नीचर भी बेहद कलात्मक है। भवन के सामने सुंदर पौधों से सजा लॉन है। भवन की शुरुआत पोर्टिको से होती है। बड़े-बड़े कमरों वाले इस भव्य भवन में जान बची लाखों पाए फिल्म की शूटिंग भी हो चुकी है।

मार्ग

सबसे निकटतम हवाई अड्डा अमौसी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, लखनऊ है। यह जगह खीरी से 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।खीरी रेल मार्ग द्वारा आसानी से लखनऊ, सीतापुर,बरेली,पीलीभीत,गोंडा आदि द्वारा पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग द्वारा दिल्ली, शाहजहांपुर,सीतापुर,मैगलगंज,हरदोई,बरेली और भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। पीलीभीत बहराइच राष्ट्रीय राजमार्ग 730 भी यहा से गुजरता है।