मथुरा का कंस मेला कल


रिपोर्ट
प्रताप सिंह
मथुरा संदेश महल समाचार

 

 

 

तीन लोक से न्यारी मथुरा नगरी में अगर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर कान्हा का मेला लगता है। तो इसी नगरी में देवष्ठान एकादशी के एक दिन पहले कंस का भी मेला लगता है। इस बार यह मेला 24 नवम्बर को मनाया जाएगा।
असत्य पर सत्य की विजय,अत्याचार और अनाचार पर सदाचार की विजय का प्रतीक बना कंस मेला हजारों वर्ष बाद भी अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। क्योंकि यह मेला चतुर्वेद समाज का एक प्रकार से प्रमुख मेला होता है। इसमें देश विदेश में रहनेवाले चतुर्वेद समाज के लोग भाग लेने के लिए आते है। जिससे यह मेला चतुर्वेद समाज का समागम बन जाता है।
इतिहास साक्षी है। कि जिस किसी ने जनकल्याण का बीड़ा उठाया पूूजनीय हुआ। भगवान श्रीकृष्ण इस धरती पर मानव वेश में आए और चमत्कारी कार्य करके लोगों को यह संदेश दिया कि यदि व्यक्ति चाहे तो उसके लिए कोई कार्य असंभव नही है। और असत्य, छल आदि के बल पर उसे दबाया नही जा सकता ।

ब्रज की विभूति रहे स्व. पं. बालकृष्ण चतुर्वेदी की पुस्तक ’’माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों का इतिहास’’ में लिखा है। कि बज्रनाभ काल से कंस का मेला चला आ रहा है। माथुर चतुर्वेद परिषद के संरक्षक महेश पाठक का कहना है। कि कंस का मेला केवल चतुर्वेद समाज के कार्यक्रम के रूप में नही देखा जाना चाहिए । जिस प्रकार रामलीला के माध्यम से नई पीढ़ी में संस्कार डालने का प्रयास होता है। वैसे ही कंस मेले के माध्यम से चतुर्वेद समाज के बालकों को संस्कारित किया जाता है। यह मेला विदेश में रह रहे चतुर्वेद बालकों को एक दिशा देता है क्योंकि इसमें हर पीढ़ी के लोग इकट्ठा होते हैं।
गर्ग संहिता के गोलोक खण्ड के नवे अध्याय के अनुसार देवकी के विवाह के समय इस आकाशवाणी ने कंस को विचलित कर दिया था कि उसका आठवां भांजा ही उसका काल बनेगा। इस आठवें भांजे को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को अलग अलग भेष में भेजा किंतु जब उसके सारे प्रयास असफल हो गए तो उसका अंत निश्चय था। उसने मल्ल क्रीड़ा महोत्सव का आयोजन श्रीकृष्ण बलराम को मारने के लिए किया जो उसके ही काल का साधन बना। जब दोनो भाई मल्ल क्रीड़ा महोत्सव देखने आए तो उन्होंने धोबी बध, कुबलियापीड़ बध और अंत में कंस द्वारा विशेष रूप से तैयार किए गए मल्ल चाणूर और मुस्टिक का बध किया ।
इस मेंले के संबंध में रवि शंकर चतुर्वेदी उर्फ रसगुल्ली चौबे ने बताया कि कंस के दरबार में छज्जूू नामक चौबे रहा करते थे और उन्होंने ही कंस के मारने की तरकीब श्रीकृष्ण और बलराम को बताई थी और कंस का बध उनके द्वारा ही कराया था। धानुष महोत्सव में भाग लेने आए दोनेा भाइयों को चतुर्वेद बालक मुख्य आयोजन स्थल पर जब ले जाने लगे तो उन्हें रास्ते में कंस का धोबी मिलता है। बातों ही बातों में वे उसे मार देते है।और उसके कपड़े लेकर दर्जी के पास जाते है। तथा उन्हें कटवाकर अपने नाप का बनवा लेते हैं। वे कंस के परिवार के कपड़ों को कटवाकर अपने नाप के कपड़े इसलिए बनवा लेते है। कि कंस बध करने के लिए वे कंस के पास तक आसानी से पहुंच जांय और उन्हें कोई रोक न सके। लाठी इस मेले का आवश्यक अंग है। जिस पर लगातार मेंहदी और तेल लगाकर कई महीने पहले से तैयार किया जाता है। कंस मेले के दिन चतुर्वेद समाज के लोग गिरधरवाली बगीची से कंस के विशाल पुतले को लेकर लाठियों के साथ कंस अखाड़े तक जाते है। उधर हांथी पर कृष्ण और बलराम के स्वरूप जाते है। चूंकि हाथी के प्रयोग पर अब प्रतिबंध लग गया है। इसलिए स्वरूप अब गाड़ी में जाते है। कंस अखाड़े पर कृष्ण के द्वारा कंस का बध किया जाता है। और चतुर्वेद बालक गाते है।

कंस बली रामा के संग,
सखा शूर से ये आए व्रजनगरी जू

कंस के बध के बाद उसके चेहरे को बल्ली पर टांग कर आगे आगे चतुर्वेद समाज के लोग वापस जाते है। पीछे ठाकुर के स्वरूप आते हैं। चतुर्वेद बाल गाते हुए चलते हैंः-

कंसै मार मधुपुरी आए, कंसा के घर के घबराए।
अगर चंदन से अंगन लिपाए. गज मुतियन के चौक पुराये।

सब सखान संग मंगल गाए, दाढ़ी लाए मूछउ लाए, मार मार लट्ठन झूर कर आए।

अंत में कसखार पर कंस के पुतले को पटक कर उसकी पिटाई करते है। और सबसे अंत में मिहारी सरदारों द्वारा विश्रामघाट पर पहले दोनो भाइयों की आरती होती है। फिर यमुना जी की आरती होती है। इसके बाद कंस की हत्या से मुक्ति के लिए देवष्ठान एकादशी पर समाज के लोग तीन वन अर्थात लगभग 55 किलोमीटर लम्बी मथुरा- गरूड़ गोविन्द- वृन्दावन की परिक्रमा करते है। जिसमें भी विदेशी चतुर्वेदी भाग लेते । इस प्रकार मेले का समापन हो जाता है।