✍️ जयप्रकाश रावत
हिंदी सिनेमा का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, उसमें कुछ नाम ऐसे रहेंगे जिनके बिना यह अधूरा लगेगा — और उन्हीं में एक नाम है मजरूह सुल्तानपुरी। वे वो गीतकार थे जिन्होंने शब्दों से जज़्बातों की ऐसी तस्वीरें उकेरीं जो आज भी संगीत प्रेमियों के दिल में जीवित हैं।
कवि से गीतकार बनने की यात्रा
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में हुआ था। उनका वास्तविक नाम असरार उल हसन खान था। प्रारंभिक शिक्षा अरबी और फारसी में हुई और बाद में उन्होंने यूनानी चिकित्सा (हकीमी) की पढ़ाई की। लेकिन नियति ने उन्हें दवाओं की नहीं, शब्दों की दुनिया में भेजा। उनकी कविताएँ मुशायरों में लोकप्रिय होने लगीं और वहीं से उनका नाम “मजरूह सुल्तानपुरी” के रूप में प्रसिद्ध हुआ — जिसका अर्थ है “घायल”।

उनकी शायरी में दर्द भी था और उम्मीद भी। यही भावनात्मक गहराई उन्हें फिल्मी दुनिया तक ले आई। 1940 के दशक में फिल्म निर्माता ए.आर. कार्डोज़ो ने मजरूह को बतौर गीतकार अवसर दिया, और फिर पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
फिल्मी सफर और अमर गीत
मजरूह का करियर पाँच दशकों तक फैला रहा। उन्होंने हर दौर में, हर रंग की फिल्मों के लिए गीत लिखे। उनके शब्दों में समय बदलता गया, लेकिन आत्मा वही रही — सच्ची, मानवीय और संवेदनशील।
1988 में आई फिल्म “कयामत से कयामत तक” ने मजरूह को एक बार फिर नई पीढ़ी के दिलों में जगह दी। “पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा” सिर्फ एक फिल्मी गीत नहीं रहा, बल्कि युवाओं के सपनों और विश्वास का प्रतीक बन गया। इसके बाद 1992 की फिल्म “जो जीता वही सिकंदर” में “पहला नशा, पहला खुमार” ने प्रेम को उस कोमलता से पेश किया, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है।
फिल्में “अकेले हम अकेले तुम” और “कभी हां कभी ना” में भी उनके गीतों ने मानवीय रिश्तों की बारीकियों को उजागर किया। हर शब्द में जीवन का अनुभव था, हर पंक्ति में भावनाओं की गहराई।
नासिर हुसैन और आर.डी. बर्मन के साथ सुनहरा दौर

मजरूह सुल्तानपुरी का नाम फिल्मकार नासिर हुसैन और संगीतकार आर.डी. बर्मन के साथ सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। फिल्म “तीसरी मंज़िल” के निर्माण के दौरान नासिर हुसैन एक नए संगीतकार की तलाश में थे। तब मजरूह ने ही उन्हें आर.डी. बर्मन से मिलवाया। यहीं से हिंदी सिनेमा की एक ऐतिहासिक तिकड़ी बनी — नासिर, मजरूह और पंचम दा (आर.डी. बर्मन)।
इस तिकड़ी ने साथ मिलकर “तीसरी मंज़िल”, “यादों की बारात”, “हम किसी से कम नहीं”, “ज़मीन को दिखाना है”, “कयामत से कयामत तक” और अन्य कई फिल्मों में काम किया। इन फिल्मों के गीत आज भी श्रोताओं के होंठों पर हैं। आर.डी. बर्मन के जोशीले सुरों में जब मजरूह के शब्द घुलते थे, तो वे संगीत नहीं, जादू बन जाते थे।

सरल शब्दों में गहरी बात
मजरूह सुल्तानपुरी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे कठिन भावनाओं को भी सहज भाषा में कह जाते थे। उनके गीतों में दिखावा नहीं था — सिर्फ सच्चाई थी।
“चुरा लिया है तुमने जो दिल को”, “ओ मेरे सोना रे”, “ये दिल न होता बेचारा”, “तेरे चेहरे में वो जादू है” — ऐसे अनगिनत गीत हैं जो उनके शब्दों की सादगी और भावनाओं की गहराई का प्रमाण हैं।
वे कहते थे — “गीत लिखना मेरे लिए संगीत की ज़रूरत नहीं, भावना की ज़रूरत है।” शायद इसी कारण उनके शब्द हर वर्ग के श्रोता को छूते थे — चाहे वह आम आदमी हो या संगीतकार।
विचार और विरासत
मजरूह न सिर्फ गीतकार थे, बल्कि एक विचारशील कवि भी थे। उन्होंने अपने दौर की सामाजिक सच्चाइयों को भी शायरी में शामिल किया। उन्होंने संवेदना को कभी व्यापार नहीं बनने दिया।
संगीतकार नौशाद, शंकर-जयकिशन, एस.डी. बर्मन, आर.डी. बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आनंद-मिलिंद — सभी के साथ उन्होंने बेहतरीन गीत रचे।
उनका लेखन निरंतरता का प्रतीक था। उम्र बढ़ती रही, लेकिन उनकी कलम हमेशा नई लगती रही। वे मानते थे कि “गीत कभी बूढ़े नहीं होते, बस उनके मायने बदल जाते हैं।”
एक अमर रचनाकार की विदाई
24 मई 2000 को मुंबई में मजरूह सुल्तानपुरी का निधन हो गया। पर उनके गीत आज भी हर सुबह रेडियो पर गूंजते हैं, हर महफ़िल में मुस्कान बनकर खिलते हैं, हर दिल की धड़कन में बसते हैं।

उन्होंने खुद कहा था —
“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।”
वास्तव में, मजरूह का यह कारवां आज भी चलता जा रहा है — गीतों, सुरों और यादों की अनवरत यात्रा बनकर। उन्होंने जो शब्द लिखे, वे सिर्फ गीत नहीं थे, बल्कि भारतीय सिनेमा की आत्मा थे।