
✍️ जयप्रकाश रावत
रात की तन्हाई में जब शहर की रौशनियाँ बुझ जाती हैं, मैं जाग उठती हूँ।
मेरे लिए अंधेरा ही दिन है और सन्नाटा ही साथी।
मेरे कमरे की दीवारों पर लटकता लाल बल्ब उस आग की तरह है,
जिसने मुझे जलाया भी है और ज़िंदा भी रखा है।
मैं नाम नहीं लिखती, क्योंकि नाम तो कई हैं —
कभी माया, कभी रूबी, कभी नेहा… और कभी बस “वो औरत”।
मेरा असली नाम किसी को नहीं पता।
क्योंकि एक बार जब कोई स्त्री देह बेचने पर मजबूर हो जाती है,
तो समाज उससे उसका नाम, उसकी पहचान, उसका “मैं” सब छीन लेता है।
पहला लम्हा — जब बचपन बिक गया था
मैं एक छोटे से गाँव में पली थी।
आँगन में तुलसी का पौधा, और माँ के हाथ की रोटियों की खुशबू मेरी दुनिया थी।
बाबू जी खेतों में काम करते थे, और शाम को जब घर लौटते,
तो मेरी चोटी पकड़कर कहते — “मेरी राजकुमारी।”
लेकिन किस्मत ने कब करवट ली, पता ही नहीं चला।
एक साल सूखा पड़ा, फसल जली, और बाबू जी बीमार पड़ गए।
जब उनके हाथों की नसें सूख गईं, घर का चूल्हा भी ठंडा पड़ गया।
मैं पंद्रह की थी — और वही उम्र थी जब दुनिया को देखना चाहिए था,
पर मुझे घर चलाने का बोझ मिला।
किसी ने कहा — “शहर जाओ, काम मिल जाएगा।”
मैं माँ की दुआओं और उम्मीदों के साथ निकली थी,
पर शहर ने मुझे काम नहीं दिया — धंधा दिया।
पहली रात किसी ने मेरा चेहरा छुआ और कहा — “डर मत, बस आँखें बंद कर ले।”
मैंने सच में आँखें बंद कर लीं,
और जब खोलीं, तो बचपन कहीं पीछे छूट गया था —
किसी अंधे गली के मोड़ पर, बिना विदाई के।
दूसरा लम्हा — जब ज़रूरत ने इज़्ज़त से लड़ाई की
कई बार लोग पूछते हैं — “तूने ये रास्ता क्यों चुना?”
कितना आसान है न पूछ लेना!
पर अगर किसी दिन भूख और इज़्ज़त को एक तराज़ू पर रख दो,
तो समझ में आ जाएगा कि “चुनना” कभी विकल्प नहीं होता।
हर रात कोई नया चेहरा, नई बोली, नया दर्द।
शुरुआत में मैंने गिनना बंद कर दिया — कितने आदमी, कितनी रातें, कितनी बार “ना” कहा और अनसुनी हुई।
फिर धीरे-धीरे शरीर आदत डाल लेता है,
पर आत्मा हर बार मरती है।
कभी कोई ग्राहक कहता — “मुस्कुराओ ज़रा,”
तो मैं आईने में झूठी मुस्कान तलाशती।
कभी-कभी कोई मेरे आँसू देखकर रुक जाता,
तो मैं सोचती — “क्या ये भी इंसान हैं?”
पर अगली ही बार वो वही कर गुजरते जो बाकी सब करते हैं —
क्योंकि यहाँ सहानुभूति भी एक क्षणिक खेल है।
तीसरा लम्हा — जब मैंने माँ बनना सीखा
एक दिन शरीर के भीतर कुछ बदलने लगा।
डॉक्टर ने कहा — “तुम माँ बनने वाली हो।”
वो शब्द मेरे लिए जैसे आसमान का दरवाज़ा खोल गए।
मैंने पहली बार अपनी कोख में जीवन की हलचल महसूस की,
और लगा, शायद भगवान ने मेरी गलती माफ कर दी।
पर जब बच्चा पैदा हुआ, तो समाज ने फिर सज़ा सुनाई।
कोई जगह नहीं थी मेरे लिए, न मेरे बच्चे के लिए।
धंधे की औरत माँ नहीं बन सकती — यही दुनिया का नियम है।
मुझे अपना बच्चा किसी अनाथालय में छोड़ना पड़ा।
मैंने उसकी नन्ही उँगलियाँ आख़िरी बार चूमीं,
और दिल से एक हिस्से को दफ़न कर दिया।
हर साल उसके जन्मदिन पर मैं वही मोमबत्ती जलाती हूँ —
जो कभी बुझती नहीं, क्योंकि वो मेरा बचा हुआ यकीन है।
चौथा लम्हा — जब किसी ने इंसान की तरह छुआ
वो बरसात की रात थी।
बारिश खिड़की से टपक रही थी और मेरा कमरा धुएँ से भरा हुआ था।
एक ग्राहक आया — बाकी सब से अलग।
उसने जब मेरी हथेलियाँ थामीं, तो उनमें रेखाएँ पढ़ने लगा।
बोला — “इनमें बहुत दर्द लिखा है।”
मैं पहली बार मुस्कुराई थी, झूठी नहीं — सच्ची।
उसने पूछा — “कभी चाहा है कि ये सब छोड़ दो?”
मैंने कहा — “चाहा बहुत बार, लेकिन छोड़ने की कीमत भी बहुत ऊँची है।”
वो चुप रहा, बस मेरे माथे को चूमा — बिना किसी सौदे के।
वो चला गया, पर उस स्पर्श ने मेरे भीतर कहीं इंसान को ज़िंदा कर दिया था।
पाँचवाँ लम्हा — जब आईने में खुद से मिली
कई बार रातें लंबी हो जाती हैं।
ग्राहक चला जाता है, शराब की बोतल खाली होती है, और कमरा सन्नाटे में डूब जाता है।
तब मैं आईने के सामने खड़ी होती हूँ।
चेहरे पर पाउडर है, होंठों पर झूठी लाली,
पर आँखों में खालीपन — जो सब कह देता है।
आईना मुझसे सवाल करता है —
“कब तक निभाएगी ये नाटक?”
और मैं कहती हूँ — “जब तक भूख जिंदा है।”
कभी लगता है — मैं भी मर चुकी हूँ, बस शरीर चल रहा है।
पर फिर किसी बच्ची को सड़क पर भीख माँगते देखती हूँ,
तो लगता है — नहीं, मुझे अब भी जीना है।
शायद किसी दिन मैं उसकी मदद कर सकूँ।
शायद मेरी कहानी उसके हिस्से की गलती रोक दे।
छठा लम्हा — जब समाज ने फिर से काटा
कभी-कभी मैं सोचती हूँ — अगर मैं किसी औरत की तरह साड़ी पहनकर मंदिर चली जाऊँ,
तो क्या भगवान मुझे पहचानेंगे?
या मुझे भी लोग दरवाज़े से धकेल देंगे —
कहते हुए कि “पापिनी है, मंदिर अपवित्र हो जाएगा।”
मैं हँस पड़ती हूँ।
क्योंकि यही समाज दिन में मुझे तिरस्कृत करता है,
और रात में मेरे कमरे की घंटी बजाता है।
यहाँ नैतिकता का चेहरा दिन-रात बदलता है —
जैसे कोई नक़ली मुखौटा।
सातवाँ लम्हा — जब मैंने कलम उठाई
एक दिन मैंने ठान लिया —
अब मैं रोऊँगी नहीं, लिखूँगी।
मैंने एक पुरानी डायरी खरीदी, और हर रात उसमें लिखने लगी —
वो सब जो किसी से कह नहीं पाई।
मैंने लिखा —
मेरे बचपन का सूखा खेत,
मेरी माँ की बुझती आँखें,
मेरे बच्चे का छोटा सा हाथ,
और हर वो रात जो मेरी आत्मा को थोड़ा-थोड़ा जलाती रही।
धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ — ये डायरी ही मेरी राहत है।
इसमें मैं खुद को पा रही थी,
जैसे कोई टूटे आईने में अपने ही बिखरे चेहरे को जोड़ने की कोशिश कर रहा हो।
आख़िरी लम्हा — जब मैंने खुद को माफ़ किया
कभी मैं सोचती थी, मैं गुनहगार हूँ।
फिर समझ आया — मैंने किसी को धोखा नहीं दिया, बस हालात से समझौता किया।
अगर पाप यही है, तो शायद पूरा समाज पापी है।
अब मैं हर सुबह सूरज को देखती हूँ।
वो मेरी खिड़की से झाँकता है,
और मैं उससे कहती हूँ — “देख, मैं अब भी ज़िंदा हूँ।”
मैंने तय किया है — अब मैं बच्चों के लिए काम करूँगी,
उनके लिए जो मेरी तरह किसी कोख या मजबूरी में जन्मे हों।
शायद मैं उन्हें वो दे सकूँ, जो मुझे नहीं मिला —
सम्मान, शिक्षा और अपनापन।
मेरा अतीत मिट नहीं सकता,
पर उससे निकले आँसू अब किसी और की मुस्कान बन सकते हैं।
मैं अब भी वही हूँ — माया, रूबी या जो भी नाम लोग दें।
पर अब मैं सिर्फ़ “देह” नहीं,
मैं एक कहानी हूँ,
जो हर उस औरत की आवाज़ है,
जिसने ज़िंदगी से हार मानने के बजाय,
उसे अपने तरीके से जीने की ठान ली।
मेरी डायरी के ये लम्हे कोई इश्क़ की दास्तान नहीं हैं,
ये उस औरत की आत्मकथा हैं,
जो हर रात मरती है और हर सुबह फिर जी उठती है।
मैं आज भी उस लाल बल्ब की रौशनी में बैठी हूँ —
पर अब उसमें आग नहीं दिखती,
अब उसमें उम्मीद की एक हल्की लौ जलती है मैं गुनाह नहीं, एक कहानी हूँ — जिसे समझो, तो शायद समाज बदल जाए।