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मुझे बहुरुपिया न कहो, मैं अक्सर आईना बना फिरता हूं?

रिपोर्ट जेपी रावत
संदेश महल समाचार

किसी शायर के यह अल्फाज़ जो इन रुप बदलते करतब के हुनरमंदों पर जग जाहिर है,जो अपनी कला के प्रदर्शन को दिखा कर लोगों के मनोरंजन के साधन बने हुए हैं। बात करते हैं शकील बहुरुपिया की जो इस दिनों उत्तर प्रदेश के जिला बाराबंकी के कस्बा सूरतगंज में अपनी टीम के साथ तरह तरह के रुपों को बदलकर करतब दिखा रहे है।

शकील बहुरुपिया और संदेश महल समाचार पत्र संवाददाता जेपी रावत से हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश।

शकील जी आप का निवास कहां है?

मैं मूलतः उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के क्षेत्र बुद्धेश्वर काकोरी में निवास करता हूं।और लगभग चालीस वर्षों से इस पेशे से जुड़े हैं। किंतु इस दौर में बहुरुपिया कलाकारों को वह सम्मान नहीं मिलता अब हम सभी कलाकार और कला दोनों मुश्किल में है।राजाओं-महराजाओं के समय बहुरूपिया कलाकारों को हुकूमतों का सहारा मिलता था।न तो वह दौर रहा और न ही जमाना।लिहाजा बहरूपियों की कद्र कम हो गई है।

कौन कौन सी कलाओं का प्रदर्शन करते हैं। समाज के लिए इसका क्या संदेश है?

कलाकारों में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं।मगर वे कला को मज़हब की बुनियाद पर विभाजित नहीं करते। मुसलमान बहरूपिया कलाकार हिंदू प्रतीकों और देवी-देवताओं का रूप धारण करने में गुरेज़ नहीं करता तो हिंदू भी पीर, फ़कीर या बादशाह बनने में संकोच नहीं करते।हम सभी कलाकार रुप बदलकर समाज को वह संदेश देते हैं जो समाज में घटनाएं घटित हो रही है।उस पर किस तरह से काबू पाया जाए कारण साफ है कि ज़्यादातर बहरूपिया कलाकार बड़े मंचो से वंचित रहते हैं। वे फ़ुटपाथ पर अपना मजमा लगाते हैं और लोगों का मनोरंजन करते हैं।कस्बा सड़क चौराहों पर घूम घूम कर समाज को संदेश देते हुए।इसी कला के ज़रिए अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं।

राजा महाराजाओं के दौर में आपका क्या महत्व था?

हमको विरासत में बताया गया था।बहरूपिया बहुत ही ईमानदार कलाकार होता है।राजाओं के दौर में हमारी बड़ी इज़्जत थी।हमें ‘उमरयार’ कहा जाता था। हम रियासत के लिए जासूसी भी करते थे।राजपूत राजा हमें बहुत मदद करते थे। और अजमेर में ख्वाज़ा के उर्स के दौरान हम अपनी पंचायत भी करते थे।आज हर कोई भेस बदल रहा है। बदनाम हम होते हैं।लोग अब ताने कसते हैं। बहरूपिया के 52 रूप है। जो भय पैदा कर दे वो ही बहरूपिया है। एक दौर हमने भी देखा है। जब बस्तियां मज़हब की हदों में बंट गई थीं और सियासत या तो शरीके-जुर्म थी या फ़रार हो गई थी।मगर ये बहरूपिया कलाकार बस्तियों में भाईचारे का पैगाम बाँटते रहे। हम सभी कलाकार रुप बदलकर प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हैं।

मेरे और सवाल करने से पहले ही शकील बहुरुपिया की जुबानी पैदल ही घूमना है। भीड़ भी है, और यह कमांडो देश की सुरक्षा के लिए तैनात है?

 

कमांडो के भेस में शकील टीम के साथ।

गौरतलब हो कि एक जमाना था, जब उन्हें सम्मान से देखा जाता था, लेकिन मनोरंजन के तौर-तरीकों में आ रहे बदलाव के साथ उनकी हालत बद से बदतर हो रही है। बहरूपियों को भिखारियों की जमात में रख दिया गया है। आज गाहे-बगाहे ही कोई बहरूपिया दिखाई देता है। गर दिख भी जाए तो उसकी गरीबी के कारण उससे किसी स्वांग की उम्मीद नहीं की जा सकती। उनसे बात करो तो उनका दर्द साफ महसूस होता है।बहरूपियों का यह संकट आजादी के बाद पनपा हो, ऐसी बात नहीं है। सन् 1871 के ब्रिटिश उपनिवेश में सरकार ने ‘क्रिमिनल ट्राइब एक्ट’ (जरायमपेशा जनजाति कानून) नामक कानून बनाया। दरअसल ईस्ट इंडिया कंपनी के समूचे शासनकाल में जिन लोगों ने समय-समय पर अंग्रेजों और भारतीय सामंतों से लोहा लिया था, उनमें बड़ी संख्या घुमंतू जनजातियों से जुड़े लोगों की थी। नट भी इनमें शुमार हैं। ये सभी जनजातियां क्योंकि लड़ाकू थीं लिहाजा अंग्रेजों में सबसे ज्यादा खौफ इन्हीं को लेकर था। 1871 में इनके दमन के लिए जो कानून बना उसमें राज्य और पुलिस को असीमित अधिकार दिए गए थे। 1871 से 1944 के बीच बहुत से बदलाव करके इनमें बाकी घुमंतू जनजातियों को भी शामिल कर दिया गया। आजाद भारत की सरकार ने 1952 में इन जनजातियों को ‘डीनोटीफाइड’ तो कर दिया लेकिन 7 साल बाद ‘हैबिच्युअल ऑफेन्डर एक्ट’ (आदतन जरायमपेशा कानून) नाम का कानून बना दिया जो 1871 के ब्रिटिश कानून से जरा भी जुदा नहीं था। 1961 से केन्द्र सरकार घुमंतू जनजातियों की राज्यवार सूची जारी करती आ रही है। वर्तमान परिवेश में बहुरूपिया भी गुजरे जमाने की कला में शामिल हो गए हैं। इस तरह समाज से विलुप्त हो रही बहुरुपिया कला को संजीदगी से सरकार ने ध्यान नहीं दिया तो भी भविष्य में एक इतिहास बनकर ही रह जायेगी।