बाराबंकी की माटी से उठी एक ज्योति – पंडित उमाशंकर मिश्र ‘काका जी’

जयप्रकाश रावत – संदेश महल
भारत की आज़ादी की कहानी सिर्फ़ दिल्ली, बंबई या कोलकाता के गलियारों में नहीं लिखी गई। यह कहानी उन गाँवों की धूल में भी दर्ज है, जहाँ सामान्य परिवारों से निकले असाधारण लोगों ने स्वतंत्रता की अलख जगाई। बाराबंकी की पावन धरती ने भी ऐसे ही एक सपूत को जन्म दिया – पंडित उमाशंकर मिश्र ‘काका जी जिनका जीवन आज़ादी, राजनीति और अध्यात्म – तीनों धाराओं का अद्भुत संगम है।

पंडित उमाशंकर मिश्र ‘काका जी

संघर्ष का बीज : गांधीवाद से प्रेरित एक नौजवान

14 जनवरी 1910 को विकासखंड सिद्धौर के ग्राम शेषपुर दामोदर में जन्मे उमाशंकर मिश्र का बालपन साधारण अवश्य था, पर स्वभाव असाधारण।
देश में जब महात्मा गांधी का सत्याग्रह आंदोलन जनचेतना की लहर बन रहा था, तब इस युवा ने भी उसी राह को अपनाया। अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ उन्होंने आवाज़ बुलंद की और अपनी जवानी देश को समर्पित कर दी।

1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज़ों ने उन्हें एक वर्ष का कठोर कारावास और सौ रुपये का अर्थदंड दिया। लेकिन जेल की सलाखों ने उनके हौसले को तोड़ा नहीं, बल्कि उसे और मज़बूत किया।
1942 में जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की ज्वाला हर दिशा में फैल रही थी, काका जी एक बार फिर अग्रिम पंक्ति में खड़े थे। उन्हें 14 माह के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। स्वतंत्रता का यह साधक बार-बार जेल गया, बार-बार दंड भुगता, किंतु कभी झुका नहीं।

प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘तम्रपत्र’ से सम्मानित किया,

त्याग की मिसाल, संघर्ष की पहचान

काका जी उन योद्धाओं में थे जिनके लिए आज़ादी कोई नारा नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य थी। उन्होंने अपने परिवार, सुख-सुविधाओं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखकर पूरे समर्पण से देशसेवा की।
अंग्रेज़ी हुकूमत के अत्याचारों का सामना करते हुए उन्होंने कुल 24 माह तक कठोर कारावास भोगा। उनके इस अविचल योगदान की स्मृति स्वरूप प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें ‘तम्रपत्र’ से सम्मानित किया, जो आज भी उनके परिवार के पास सहेजा गया है – राष्ट्र के प्रति उनके समर्पण का साक्ष्य।

आज़ादी के बाद जनता की सेवा में

देश आज़ाद हुआ तो काका जी ने राजनीति को साधन नहीं, सेवा का माध्यम बनाया। सन् 1952 में जब उत्तर प्रदेश की पहली विधानसभा का गठन हुआ, तब उन्होंने बाराबंकी जिले के नवाबगंज (दक्षिण), हैदरगढ़ और रामसनेहीघाट क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा और जनता के समर्थन से विधायक बने।
1952 से 1957 तक का उनका कार्यकाल विकास की दृष्टि से उल्लेखनीय रहा।
हैदरगढ़–रामसनेहीघाट मार्ग पर गोमती नदी के तट पर नैपुरा गांव के पास पुल का निर्माण उनका ही प्रयास था, जो आज भी क्षेत्र की जीवनरेखा बनकर खड़ा है। वह राजनीति में सत्ता के लिए नहीं, बल्कि समाज के उत्थान के लिए थे।

राजनीति से विरक्ति और अध्यात्म की ओर प्रवास

समय बीता। सन् 1958 में जब उन्हें लगा कि राजनीति अब सेवा से अधिक स्वार्थ का माध्यम बन रही है, तो उन्होंने स्वयं को उससे अलग कर लिया। उन्होंने चित्रकूट धाम की राह पकड़ी – वह भूमि जहाँ सेवा, साधना और त्याग का संगम होता है।
चित्रकूट में उनके तप, अनुशासन और सेवा से प्रभावित होकर उन्हें कामदगिरि तीर्थस्थल का महंत बनाया गया। तब से वह प्रेम पुजारी दास के नाम से विख्यात हुए।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी से विधायक और फिर महंत – यह परिवर्तन एक साधक की आत्मयात्रा थी, जिसने जीवन को तीनों स्तरों पर जिया-  संघर्ष, सेवा और साधना।

समापन नहीं, प्रेरणा की शुरुआत

21 अक्टूबर 1994 को प्रेम पुजारी दास इस भौतिक संसार को छोड़कर पंचतत्व में विलीन हो गए। किंतु उनका जीवन आज भी प्रेरणा की गाथा है।
बाराबंकी की यह मिट्टी आज भी उनका स्मरण करते हुए गर्व से कह सकती है –
यह वही भूमि है, जिसने एक ऐसे सपूत को जन्म दिया, जिसने देश की आज़ादी के लिए जेलों की कालकोठरियाँ देखीं, फिर लोकतंत्र की नींव को मज़बूत किया, और अंततः अध्यात्म के मार्ग पर चलकर मानवता की सेवा को जीवन का सार बना दिया।

आज जब हम स्वतंत्र भारत की खुली हवा में सांस लेते हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह स्वतंत्रता उन लोगों की देन है जिन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया।
पंडित उमाशंकर मिश्र ‘काका जी’ उन्हीं अमर सेनानियों में से एक हैं, जिनकी गाथा इतिहास नहीं, बल्कि प्रेरणा है – जो हमें याद दिलाती है कि सच्ची सेवा राजनीति से नहीं, बल्कि समर्पण से जन्म लेती है।