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मन मंदिर में मूरत तेरी धीरे से मुस्काती है

घटा उमड़ कर जैसे

प्राण अटके कंठ बस तुझको पुकारे
आंखें केवल छवि तेरी सुंदर निहारे
डाल पर पंछी भी बोलापी कहां रे
वह कहां जीता रहा जिसके सहारे
दुख की बदली यादों पर आ जाती है
घटा उम्र कर सावन की जैसे नव पर छा जाती है
नहीं दिन में चैन ना राते सुहाती
भ्रम भी होता तू मुझे जैसे बुलाती
बहुत दिन से खबर ना आई है पाती
छवि तेरी आंखों में है बस आती-जाती
भूलना चाहूं तो फिर बहुत याद आती है
घटा उमड़ कर जैसे नभ पर छा जाती है
कर रहा निशदिन यही बस प्रार्थना
विश्व संचालक से मेरी अर्चना
घोरतम दुख क्या मेरे हित है बना
हर समय दिल रहता मेरा अन मना
आंखों से आंसू की दरिया बहती जाती है
घटा- उमड़कर सावन की जैसे नभ पर छा जाती है
मोर नाचा बादलों संग है रुलाता
प्यार के अनकहे वचनों को सुनाता
कोई कहता कोई तुझको है बुलाता
जिसका तुझसे है जन्म दर जन्म नाता
मन मंदिर में मूरत तेरी धीरे से मुस्काती है
-घटा उमड़कर सावन की जैसे नभ पर छा जाती है।

अशोक अवस्थी लहरपुर सीतापुर संदेश महल समाचार