
सिद्धार्थनगर से आई यह खबर दिल को झकझोर देने वाली है — प्राथमिक विद्यालय भदोखर में तैनात प्रभारी प्रधानाध्यापक शौकिन्द्र (36 वर्ष) ने बुधवार रात कथित रूप से जहरीला पदार्थ खा लिया। वजह? एक माह से वेतन रोके जाने और अधिकारी द्वारा की जा रही प्रताड़ना।
एक शिक्षक, जो बच्चों को जीवन का मूल्य सिखाता है, जब खुद जीवन से हारने की सोच लेता है — तो इसका अर्थ केवल व्यक्तिगत असफलता नहीं, बल्कि पूरे शिक्षा तंत्र की नैतिक विफलता है।
वेतन रुका है, सेवा नहीं…
उत्तर प्रदेश में शिक्षकों के साथ यह एक नया ‘सामान्य’ हो गया है — किसी बहाने से वेतन रोक देना।
कभी डाटा अपडेट न होने पर, कभी आधार कार्ड न जुड़ने पर, कभी निरीक्षण रिपोर्ट अधूरी रहने पर।और फिर महीनों वेतन बंद।
शौकिन्द्र के साथ भी यही हुआ। बच्चों के आधार कार्ड न बनने की तकनीकी समस्या पर उनका वेतन रोक दिया गया। बाकी शिक्षकों का बहाल हुआ, पर उनका नहीं। उन्होंने आवेदन दिया, आदेश भी निकला, पर ब्लॉक स्तर पर “वेतन आख्या” फिर किसी न किसी कारण अटक गई।

अब सवाल है — क्या कोई शिक्षक सिर्फ इसलिए वेतन से वंचित रह जाएगा क्योंकि पोर्टल काम नहीं कर रहा था? क्या किसी कर्मचारी को यह अधिकार है कि वह मनमाने ढंग से किसी का वेतन रोके रखे?

प्रताड़ना का आधुनिक तरीका
अब प्रताड़ना डांट या सस्पेंशन से नहीं होती,
अब प्रताड़ना “ऑफिसियल प्रोसेस” के नाम पर होती है।
“आपकी फाइल अधूरी है”, “रजिस्टर अपलोड नहीं हुए”, “सर्वे अपडेट नहीं है” — इन बहानों के पीछे असल में एक अमानवीय दबाव छिपा होता है।शिक्षक से पढ़ाने की बजाय पोर्टल भरने का काम लिया जा रहा है।
यह हालात किसी एक जिले के नहीं, पूरे प्रदेश की हैं। हर ब्लॉक में ऐसे शिक्षक हैं जो बिना गलती के वेतन रोके जाने, ट्रांसफर टालने या रिपोर्टिंग में अपमान झेलने को मजबूर हैं।
मानसिक बोझ का पर्वत
शौकिन्द्र जैसे शिक्षक दिनभर स्कूल संभालते हैं, बच्चों की पढ़ाई, मिड डे मील, निरीक्षण, पोर्टल, सर्वे — सब।
और जब शाम को बीईओ का आदेश व्हाट्सऐप पर आता है, “रजिस्टर ऑनलाइन नहीं, वेतन नहीं मिलेगा” — तो उसके बाद टूट जाता है मनोबल।
रात आठ बजे उन्होंने जहर खा लिया।
यह एक व्यक्ति का कदम था, लेकिन यह व्यवस्था की संवेदनहीनता का मुकदमा है।
शिक्षक संघ की पुकार
प्राथमिक शिक्षक संघ ने मांग की है कि बीईओ पर मुकदमा दर्ज हो, निष्पक्ष जांच हो।
सवाल यह नहीं कि जांच होगी या नहीं — सवाल यह है कि क्या जांच से सिस्टम की सोच बदलेगी?
क्योंकि हर बार ऐसी घटनाओं के बाद वही बयान आता है — व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान था।
यह पंक्ति अब एक ढाल बन चुकी है, जिससे प्रशासन हर जिम्मेदारी से बच निकलता है।

शिक्षा तंत्र का नैतिक पतन
जब शिक्षक की आवाज अनसुनी हो जाए, जब उसे अपमानित करके काम करवाना सामान्य लगे, जब उसका वेतन रोकना ‘प्रशासनिक प्रक्रिया’ कहलाए —
तो मान लीजिए, शिक्षा व्यवस्था अब “शिक्षक केंद्रित” नहीं, “अधिकारियों के अहंकार केंद्रित” हो गई है।
वही शिक्षक जो गांवों में अंधेरे में भी बच्चों के भविष्य के लिए दीपक जलाता है,
वह आज अपने अधिकार के लिए अंधेरे में डूब रहा है।
अब जरूरी है बदलाव
यह घटना चेतावनी है — अगर तंत्र नहीं बदला, तो शिक्षा तंत्र में निराशा का यह जहर फैलता जाएगा।
शिक्षक को भयमुक्त वातावरण, सम्मान और भरोसा चाहिए — न कि धमकी और फाइलों का आतंक।
सरकार और प्रशासन को यह समझना होगा कि “एक शिक्षक को तोड़ना, हजारों बच्चों की उम्मीद तोड़ने जैसा है।
शौकिन्द्र की यह पीड़ा किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस हर शिक्षक की है जो सिस्टम की लापरवाही का बोझ अपने सीने पर लिए पढ़ा रहा है।
आज वह अस्पताल में है — लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हमारी संवेदनाएं अब भी जीवित हैं?