
जेपी रावत -हजारीबाग संदेश महल
हजारीबाग। समय बदल गया, युग बदल गए, पर छठ महापर्व की परंपराएं आज भी वैसी ही जीवंत हैं जैसी हजारों वर्ष पहले थीं। आधुनिकता के इस दौर में भी व्रती और श्रद्धालु जब भगवान भास्कर को अर्घ्य अर्पित करते हैं, तो हाथों में बांस का सूप ही थामे रहते हैं। इसका कारण केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि एक पौराणिक कथा से जुड़ा गहरा सांस्कृतिक संबंध है।
श्रद्धालुओं के अनुसार, त्रेतायुग में माता सीता ने सूर्यदेव की उपासना के समय घास, बांस और पेड़-पौधों की टहनियों से बर्तन तैयार किया था। उन्होंने उसी बर्तन में फल रखकर भगवान भास्कर को अर्घ्य अर्पित किया था। यही परंपरा आज तक अक्षुण्ण बनी हुई है।
व्रती महिलाएं बताती हैं कि बांस के सूप से अर्घ्य देने का चलन केवल परंपरा नहीं, बल्कि शुद्धता और प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक है। धर्मशास्त्रों में भी बांस को पवित्र, दीर्घायु और स्थायित्व का प्रतीक बताया गया है।
बांस का सूप क्यों है खास
धार्मिक मान्यता है कि बांस जितनी तेजी से बढ़ता है, वह वंश और संतान की वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। छठ के अर्घ्य के समय जब व्रती बांस के सूप से सूर्य को जल अर्पित करते हैं, तो यह संतान की लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और परिवार की समृद्धि की कामना का प्रतीक होता है।
स्थानीय श्रद्धालु बताते हैं कि माता सीता ने धातु के बर्तन के बजाय प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं का उपयोग कर यह संदेश दिया था कि पूजा और उपासना तभी सार्थक होती है जब मनुष्य प्रकृति के साथ एकाकार हो।
श्रद्धालु बोले – यह हमारी संस्कृति की पहचान है
स्थानीय श्रद्धालु सावित्री देवी ने बताया, “हमारे पुरखों से सुना है कि माता सीता ने सूर्य उपासना में पेड़ों की टहनियों और बांस से बने सूप का ही प्रयोग किया था। तभी से हमारी परंपरा में यही सूप पवित्र माना गया। आज भी छठ के हर घर में बांस का सूप ही सबसे पहले खरीदा जाता है।
आस्था, संस्कृति और प्रकृति का संगम
छठ पर्व केवल पूजा नहीं, बल्कि मानव और प्रकृति के सहअस्तित्व की अनोखी मिसाल है। मिट्टी के दीये, नदी का जल, सूर्य की उपासना और बांस का सूप—ये सब एक साथ मिलकर यह संदेश देते हैं कि जीवन तभी संतुलित रहेगा जब मनुष्य प्रकृति के प्रति श्रद्धा बनाए रखे।