जयप्रकाश रावत- संदेश महल
लखनऊ की मिट्टी में जन्मे नौशाद अली वह कलाकार थे जिन्होंने भारतीय सिनेमा में संगीत को सिर्फ़ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति और आत्मा का उत्सव बना दिया।
उनका संगीत ना केवल सुनने वालों के दिलों में उतरता था, बल्कि हिंदुस्तानी तहज़ीब और रागों की परंपरा को भी नई ऊंचाई देता था।
उनकी धुनों में गंगा-जमुनी संस्कृति की मिठास थी, शास्त्रीय संगीत की गहराई थी और भारतीय आत्मा की गूंज थी।

लखनऊ से मुंबई तक — संघर्ष और साधना का सफ़र
25 दिसम्बर 1919 को मुंशी वाहिद अली के घर जन्मे नौशाद ने बचपन में ही सुरों से दोस्ती कर ली थी। लखनऊ की गलियों में जब ठुमरी, दादरा और कव्वालियों की धुनें गूंजतीं, तो वह बालक वहीं कहीं कोने में बैठा, कानों में वो सुर भर लेता।
सत्रह वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी किस्मत आज़माने के लिए मुंबई की राह पकड़ी।
जेब में पैसे नहीं, पर दिल में संगीत का महासागर था।
मुंबई में उन्हें कठिनाइयों ने घेरा, पर उनकी तान कभी नहीं टूटी। उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झंडे खां और पंडित खेमचंद्र प्रकाश जैसे दिग्गजों की संगत में उन्होंने संगीत को साधना की तरह सीखा — राग, ताल और लय का वह सम्मिश्रण जिसने आगे चलकर भारतीय फिल्म संगीत की दिशा बदल दी।
पहला मौका और अमरता की शुरुआत
1940 में उन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से “प्रेम नगर” फिल्म में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन पहचान मिली 1944 की “रतन” से।
जोहरा बाई, अमीर बाई और श्याम के गाए गीतों ने देशभर में धूम मचा दी — और यहीं से शुरू हुआ वह सफर जो अगले छह दशकों तक चला।

“बैजू बावरा”, “मदर इंडिया”, “मुग़ल-ए-आज़म”, “गंगा-जमुना”, “कोहिनूर”, “राम और श्याम”, “मेरे महबूब” — ये सिर्फ़ फिल्में नहीं थीं, बल्कि भारतीय संगीत की पाठशालाएँ थीं।
नौशाद ने शास्त्रीय संगीत को जनमानस के दिल में उतार दिया। उनकी रचनाओं में सुर केवल सुनाई नहीं देते थे, महसूस होते थे।
संगीत के मंदिर में एक साधक
नौशाद साहब की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उन्होंने संगीत को कभी व्यवसाय नहीं बनने दिया।
उन्होंने कहा था —
“मैं फिल्म के लिए संगीत नहीं बनाता, मैं संगीत के लिए फिल्में करता हूँ।”
उनका संगीत शुद्ध, आत्मीय और भारतीयता से भरपूर था।
जब वह ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ या ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ जैसी रचनाएँ करते थे, तो हर सुर में भक्ति और सौंदर्य का संगम झलकता था।
छोटे पर्दे से शायरी तक
उन्होंने टीवी धारावाहिकों — “द स्वॉर्ड ऑफ टीपू सुल्तान” और “अकबर द ग्रेट” — में भी संगीत देकर इतिहास को सुरों में पिरो दिया।
कम लोग जानते हैं कि नौशाद एक संवेदनशील शायर भी थे।
उनका शायरी संग्रह “आठवां सुर” उनके भीतर के कवि को उजागर करता है।
उनकी रचनाओं में भी वही भावनात्मक गहराई थी जो उनके संगीत में झलकती थी।
लखनऊ से अटूट लगाव
भले ही उन्होंने जीवन का अधिकांश समय मुंबई में बिताया, पर उनके दिल में हमेशा लखनऊ बसता रहा।
उन्होंने वहां के दोस्तों के साथ मुंबई में भी एक छोटा-सा “लखनऊ” बना रखा था — वजाहत मिर्ज़ा चंगेज़ी, अली रज़ा, बेदिल लखनवी और सुल्तान अहमद जैसे रचनाकार उनके हमनिवाला थे।
वह अक्सर कहते थे,
“रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है,
ये कूचा मेरा जाना-पहचाना है।”
इन पंक्तियों में सिर्फ़ nostalgia नहीं, बल्कि उस मिट्टी के प्रति कृतज्ञता है, जिसने उन्हें बनाया।
अंतिम स्वर — जो आज भी गूंजता है
5 मई 2006 को जब नौशाद अली इस दुनिया से रुख़सत हुए, तो भारतीय संगीत ने अपने युग का सबसे विनम्र साधक खो दिया।
लेकिन उनके सुर अब भी जीवित हैं —
कभी किसी राग में, कभी किसी मंदिर की घंटियों में, और कभी किसी माँ के लोरी गुनगुनाने में।
उनकी बनाई धुनें समय से परे हैं, क्योंकि वे दिल से पैदा हुईं और दिलों में बस गईं।
वह कलाकार नहीं, संगीत के फ़कीर थे —
जिन्होंने सुरों को आत्मा बना दिया, और आत्मा को सुरों में ढाल दिया।