जयप्रकाश रावत
(विशेष लेख — संदेश महल)
मंदिर से संसार तक स्त्री का अटूट साथ
मनुष्य के जीवन का हर अध्याय स्त्री के स्पर्श से ही पूर्ण होता है। चाहे वह मंदिर का आँगन हो या संसार का प्रांगण — हर स्थान पर पुरुष को स्त्री का साथ आवश्यक है।
मंदिर में भी हर देवता के साथ एक देवी स्वरूप विद्यमान हैं — कृष्ण के साथ राधा, राम के साथ सीता और शंकर के साथ पार्वती। यही जोड़ी सृष्टि के संतुलन की आधारशिला है।
हर समय, हर काम में स्त्री की उपस्थिति
दिन की शुरुआत ऊषा से होती है और अंत संध्या से। अध्ययन में विद्या, कर्म में लक्ष्मी, विश्राम में शांति और परिश्रम में अन्नपूर्णा का आशीर्वाद निहित है।
जीवन का प्रत्येक कर्म, प्रत्येक साधना किसी न किसी स्त्री रूप के बिना अधूरी है।
भक्ति के हर स्वर में स्त्री का नाम
मंदिर में जब भक्त भगवान के सामने खड़ा होता है, तो उसकी भक्ति वंदना, पूजा, अर्चना, आरती, आराधना जैसे स्त्रीलिंगी शब्दों में प्रकट होती है।
और यह सब श्रद्धा के साथ होता है — जो स्वयं स्त्री स्वरूप है।
अंधकार, संघर्ष और करुणा — हर रूप में स्त्री शक्ति
जब अंधेरा छाता है, तो मनुष्य ज्योति का स्मरण करता है।
संघर्ष के समय जया-विजया की कामना करता है।
बुढ़ापे में करुणा और ममता का सहारा ढूंढ़ता है।
और जब गुस्सा आता है, तो क्षमा ही शांति देती है।
निशा से निंदिया रानी तक स्त्री की छाया
रात यानी निशा के समय भी स्त्री का स्पर्श बना रहता है — निंदिया रानी की गोद में विश्राम और सपनों में नई आशा लेकर मनुष्य सो जाता है।
स्त्री — सृजन, संवेदना और संतुलन का प्रतीक
स्त्री केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि वह शक्ति है जो पुरुष के हर कर्म, भावना और आस्था में विद्यमान है।
वह सृजन है, वह संवेदना है, वह संतुलन है। उसी के बिना पुरुष अधूरा है — जैसे बिना संगीत के स्वर, बिना प्रकाश के दीपक, बिना श्रद्धा के पूजा।
धन्य है स्त्री जाति
जो इस सृष्टि को पूर्णता का अर्थ देती है और पुरुष को जीवन के हर रूप में संबल प्रदान करती है।
वह हर देवता की अर्धांगिनी नहीं, बल्कि सृष्टि की संपूर्णता है।